पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३०९

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++Narent श्रीभक्तमाल सटीक। ऐसा हितोपदेश पाके, आपने श्रीस्वामी राघवानन्दजी को साष्टाङ्ग प्रणामकर विनय किया कि "हे प्रभो। यह शरीर और आत्मा आपको अर्पण है इसकी दोनों लोक में रक्षा कीजिये” तव श्रीस्वामीजी ने श्रीरामपडक्षर मंत्र आदि पंचसंस्कार कर रामानन्द नाम दिया और प्राणायाम श्रादिक रीति बता, उतारने की युक्ति भी सिखाके समाधि में स्थित कर दिया, काल आया देखके चला गया। थोड़े ही काल में आप समाधिस्थ हो गए यह कुछ बड़ी बड़ाई नहीं है आप तो स्वयं प्रभु के । अवतार ही है, परन्तु यह सब लीला है, सो भी उचित ही है। कुछ काल में आप समाधि से उतरके श्रीमंत्र जाप और गुरुसेवा तत्पर हुए। श्रीराघवानन्द स्वामीजी महाराज तथा भगवान रामानन्दर्ज के परस्पर सत्सङ्ग की शोभा क्या कही जावे।। दो० "दोउ महान मिलि सोइही, सम वसिष्ठ रघुनाथ । उपमा अपर समुद्र जस, सहित ब्रह्मद्रव पाथ ॥" स्वामी श्री १०८ रामानन्दजी ने बहुत तीर्थाटन किया। "श्रीकृष्ण-चैतन्य-चिरंजीवी" ("श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु"नहीं) की दया से अष्ट सिद्धि को प्राप्त हुए। चौपाई। जगत गुरू, प्राचारज भूपा । रामानन्द राम के रूपा॥ "श्रीरामानन्दीयसम्प्रदाय आप जब पुनः श्रीगुरु दर्शन को गए तो प्राचारी गुरुभाइयों ने प्राचार विचार का आग्रह न देख इनको दंड करने के लिये गुरु महाराज से कहा । परन्तु श्रीगुरुजी ने तो आपको यह आज्ञा दी कि "तुम अपना सम्प्रदाय ही अलग प्रचलित करो।" ऐसा ही किया, सो "श्रीरामावत" वा "श्रीरामानन्दीय” सम्प्रदाय आपका प्रसिद्ध ही है ।