पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३२३

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+-+NNI-11-0opment श्रीभक्तमाल सटीक। होके, बिना भगवदर्पण की हुई जलेवियाँ इसने खा ली। इससे खड्ग लेके उसको मार डालना चाहा, तव सन्तों ने जाके उसको माँगके अपना करके, उसकी रक्षा की। फिर सन्तों ने कहा कि यह बालक अब हमारा हो गया, इसका मूल्य हमको देके इसको तुम अपने ही पास रक्खो॥ ( १५८ ) टीका । कवित्त । (६८५ ) नृपसुत भक्त बड़ो अबलों विराजमान साधु सनमान में न दूसरो वखानिये। संत बधूगर्भ देखि उभै पनवारे दिये, कही अर्भ इष्ट मेरो ऐसी उरानिये ॥ कोऊ भेषधारी सो ब्योहारी पगंदासिन को कही कृपा करो कहा जानैं और प्रानिये। ऐपै तजिदेवो क्रिया देखि जग बुरो होत जोतिब(दई दाम राम मति सानिये ॥१२०॥ (५०६) वात्तिक तिलक । कुल्हू के राजा का पुत्र बड़ा भक्त, साधुओं की सेवा सम्मान करने में अद्वितीय है। भंडारे में एक गृहस्थाश्रमी सन्त की बधू को गर्भवती देख, उसको दोहरा पारस (दो पनवारे) देकर, आपने यह कहा कि इस गर्भ में जो बालक है, वह मेरा इष्ट अर्थात् भगवद्भक्त है, उसके लिये मैं इस दूसरे पत्र के पदार्थ अर्पण करता हूँ। कालान्तर में वस्तुतः उस गर्भ से हरिभक्त पुत्र ही हुआ। __एक मनुष्य सन्तों का वेष बनाए पगरखियाँ (पनहियाँ) बेचा करता और अति दरिद्र ही बना रहता था । भक्त राजा को उस पर दया आ गई । उससे बोले कि "आप तो कृपा करके कंटकादि से रक्षा करने के हेतु यह व्यापार करते हैं, परन्तु और जीव इस बात को कैसे जान सकें ? सब जगत् के लोगों को यह व्यवहार देख के १"अवलो" अब तक अर्थात् श्रीप्रियादासजी के समय तक ।२"पनवारे"=पत्र' पत्तल ३ "अर्भ"-अर्भक, बालक । ४ "पगवासिन"=पनहीं, पगरखी, जूतियाँ । ५ "जोतिबहुदई"- हृदय मे बहुत प्रकाश दिया "बहुत ज्योति दी" बहुत ज्योतियुक्त दान सुवर्ण दिया । जोतने- बोने को भूमि तथा खेत की सामग्रियाँ दी।