पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३२६

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.Hul r-144Pranavr ...... ..Hum. 49.AMAdvantaHAI भक्तिसुधास्वाद तिलक। मर गया। जब उसको लोग नदीतट पर ले गये तो आपने उन लोगों से कहा कि "यदि तुम्हारा राजाऔर ग्रामवासी लोग आज से वैष्णवसेवा की प्रतिज्ञा करें तो अनन्त शक्तिवाले करुणाकर श्रीसीतारामजी से हम इस लड़के को पुनर्जीवित होने की प्रार्थना करें।" ग्रामवासियों सहित राजा ने सुबुद्धि मन्त्रियों के कहने से वही दृढ़ प्रतिज्ञा की, तब साधुचरणामृत (अपना पदतीर्थ ) देकर आपने उस खड़के को जिला दिया। इस प्रकार से उस प्रदेश को आपने चेताकर हरिभक्त कर दिया । चौपाई। “सन्तविटप सरिता गिरि धरनी । परहित हेतु सवन्द की करनी॥ हेतु रहित जुग जुग उपकारी । तुम तुम्हार सेवक असुरारी।" सन्तकृपा की जय ।। ३७वे मूल में श्रीअनन्तानन्दजी के शिष्यों के नाम कह आए १. श्रीयोगानन्दजी ५. श्रीपयहारीकृष्णदासजी २. श्रीगएशजी ६. श्रीसारीरामदासजी ३. श्रीकर्मचन्दजी ७. श्रीरंगजी ४. श्रीअल्हजी सो, इनकी चर्चा ऊपर हो चुकी अब श्रीनरहरिदासजीकी वार्तासूनिये, और तब,श्रीपय- हारीजी के शिष्यों के नाम ३९ वे मूल में। (२४) श्रीनरहरिदासजी। किसी किसी ने श्रीनरहरिदासजी को श्री श्रीरंगजी का शिष्य लिखा है, और कोई कोई पापको श्रीअनन्तानन्दजी का पौत्र शिष्य नहीं, वरंच स्वयं श्रीअनन्तानन्दजी ही का शिष्य लिखते हैं। किसी का लेख है कि यही महाराज श्रीनरहरिदासजी श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी के गुरु थे, और किसी का मत है कि नहीं, श्रीगोस्वामी- जी के गुरु श्रीनरहरिदासजी तो और ही थे, वे श्रीगोपालदासजी वाराहक्षेत्रवासी के शिष्य थे॥ अस्तु, श्रीनरहरिदासजी एक समय श्रीजगन्नाथजी के दर्शन को गए, वहाँ आपने सोचा कि "श्रीठाकुरजी को यदि साष्टाङ्ग दण्डवत् करूँ तो दर्शन से उतने समय तक, असह्य विक्षेप होगा," इससे श्राप