पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३२८

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sarmatha.... भक्तिसुधास्वाद तिलक । (२५) श्रीकील्हदेवजी। (१६०) छप्पय । (६८३) गांगेयं मृत्यु गंज्यो नहीं, त्यों कील्ह करन नहिं कालवश ॥ रामचरणचिंतवनि, रहति निशिदिन लौ लागी। सर्व भूत शिर निमित, सूर, भजनानंद भागी॥ सांख्य योग मत सुदृढ़ कियो अनुभव हस्तामल ब्रह्म रंध्रकरि गौन भये हरि तन करनी बल॥ सुमेर-देव-सुत जग बिदित, भू बिस्ताखो बिमल यश। गांगेय मृत्यु गंज्यो नहीं, त्यों कील्ह करन नहिं कालबश ॥४०॥(१७४) बात्तिक तिलक। जैसे श्रीगंगाजी के पुत्र श्रीभीष्मजी को मृत्यु ने अपनी इच्छा से विनाश नहीं किया, तैसे ही स्वामी श्रीकोल्हदेवजी को काल अपने वश नहीं कर सका, क्योंकि आपकी यह दशा थी कि श्रीराम सच्चिदानन्दजी के चरणकमल के स्मरण चिन्तवन में रात्रि दिन तैल- धारावत् एक रस लय लगी रहा करती थी। सम्पूर्ण प्राणीमात्र का सीस आपको देखके नमित हो जाता था, आप भी सर्व प्राणियों में श्रीसीतारामजी को अन्तर्यामी जानके सबको सीस नवाते थे, और आप माया मोह के दल को नाश करने में सूरवीर सन्त, भजना- नन्द के भोक्का, भाग्यशाली थे। सांख्यशास्त्र तथा योगशास्त्र इन दोनों मतों के सिद्धान्तों का सुदृढ़ अनुभव आपको ऐसा था कि जैसे अपने हाथ में वर्तमान आवले के फल का यथार्थ ज्ञान होता है ।। १ "गागेय"-- श्रीभीष्मजी । २ "गंज्यो नहीं"-नही नाश किया । ३ “साख्य"-शास्त्र चौबीस तत्त्वमय प्रकृति को जानके उससे पृथक् पुरुष को जानना । ४ "योग" अष्टांग साधन करके मूढ, विक्षिप्त, घोर, शान्त और अनुरोध इन पाँचो चित्त की वृत्तियो को समेट के केवल संप्रज्ञातयोग मे जाके परमात्मा से प्राप्त होके असंप्रज्ञात समाधि में स्थित हो जाना ॥