पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३२९

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३१० - -- - --- श्रीभक्तमाल सटीक । __अन्त में अपनी इच्छा ही से सुषुम्ना मार्ग होकर, ब्रह्मरंध्र वेधके, हरिकृपा से अपनी करनी के बल से श्रीरामरूप हो गए, अर्थात् सारूप्यमुक्ति को प्राप्त हुए । श्रीमुमेरदेवजी के पुत्र (श्रीकोल्हदेवजी) ने सर्व जगत् में विख्यात, इस प्रकार का विमल यश भूमण्डल में फैलाया कि जैसे श्रीभीष्मदेवजी ने दक्षिणायन में शरीर नहीं त्यागा बरंच हरिकृपाश्रिता अपनी इच्छा ही से श्रीभगवद्धाम को गए, तैसे ही यद्यपि कालसर्प ने आपको तीन बेर काटा, तथापि मृत्यु की तो बात ही क्या है, किंचित् विषमात्र तक न चढ़ा। यद्यपि थीकोल्हदेव स्वामीजी विरक्त थे तथापि आपको "सुमेरदेव-सुत" कहने का तात्पर्य यह है इनके सम्बन्ध से उनका नाम कहके, श्री १०८नाभास्वामीजी ने श्रीसुमेरदेवजी को भी भक्तमाल के भक्तो मे गिनती किया, सो आगे टीकाकार भगबद्धाम जाना श्रीसुमेरदेवजी का वर्णन करेंगे ही। (१६१) टीका । कवित्त ! (६८२) श्रीसुमेरदेव पिता सूवे गुजरात हुने भयो तनु पात सो विमान चढ़ि चले हैं । वैठे मधुपुरी कील्ह मानसिंह राजा ढिग देखे नम तात, उठि कही "भले, भले, हैं" ॥ पूछे नृप “वोले कासों?" "कैसे के प्रकासों,” “कहौ,"कह्यो हठ परे, सुनि अचरजरले हैं।मानुस पठाये, सुधि ल्याए साँच, आँच लागी, करी साष्टाङ्ग बात मानी भाग फले हैं ॥ १२१ ॥ (५०८) "बार्तिक तिलक । श्रीकोल्हदेवजी के पिता श्रीसु मेरदेवजी, सूबै गुजरात के "सूबा" (सूवादार) थे, यद्यपि गृहस्थाश्रम ही में रहे, तथापि परम भगवद्भक्त थे, सो आप वहाँ ही (गुजरात में ही) शरीर त्यागकर विमान पर चढ़के श्री रामधाम को पधारे, उस समय श्रीकील्हदेवजी मथुराजी - में राजा मानसिंह के पास बैठे थे। अपने पिताजी को विमान पर आकाश में जाते देख, उठके, प्रणाम कर बोले कि “बहुत अच्छा, भले, पधारिये"॥ १ "अचरज रले हैं"=बाश्चयं मे मिले, आश्चर्य्य युक्त हुए, आश्चर्य को प्राप्त हुए। २"आँच"-ताप।