पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३८

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+ वन i n + + httpubA14- + Herritatun भक्तिसुधास्वाद तिलक । फैल जाती है, और बड़े ही विवादी थे, कि वेदवाक्य के ग्रहण में किसी प्रकार से श्रा नहीं सकते थे। ___ एक समय श्री शङ्कराचार्यजी से शाम्रार्थ में और २ विवादों से पराजय होके, आप को बालब्रह्मचारी जानके “शुचि” अर्थात् शृङ्गाररस (स्त्रीपुरुषप्रसङ्ग) की वार्ता का बाद करने लगे । तब आप उस बात के जानने के अर्थ कुछ अवकास लेके किसी राजा ("अमरुक") के मृतकशरीर में, परकायप्रवेश सिद्धि के वल से, घुस गए, और अपने शरीर की रक्षा करने को शिष्यों से कह गए। तथा, प्रवेश करने के पूर्व ही एक “मोहमुद्गर” नामक ग्रन्थ बनाके शिष्यों को पढ़ाके कह गए कि "कदाचिव विषयासक्त होके नृपदेह विषे मेरा ममत्व आवेश देखो तो आके यही ग्रंथ मुझे सुनाना, सुनते ही मैं नृपशरीर से न्यारा होके (तज के) निज देह में चला पाऊँगा"॥ . (१६७) टीका । कवित्त । (६७६) जानिकै भावेशंतन शिष्य , प्रवेश कियो रावले में देखि सो श्लोक लै उवाखो हैं । सुनत हि तजो तन, निज तन आय लियो, कियो यो प्रनाम दास, पन.पूरो पाखो है । सेवरा हराए बादी, पाए नृप पास, ऊँचे छति पर वैठि एक माया फन्द डायो है ॥ जल चढ़ि आयो, नाव भाव ले दिखायो, कहे “चढ़ौ, नहीं बड़ो, आप कौतुक सों घाखो है ॥ १२५॥ (५०४) __ वात्तिक तिलक । श्रीशङ्कराचार्यजी जितने काल की अवधि शिष्यों से कह गए थे सो काल व्यतीत हो गया, तब शिष्यों ने जाना कि “जो स्वामीजी ने आज्ञा की थी सो काल तो वीत गया, अतएव अब जाना जाता है कि राजा के तन में ममत्व का श्रावेश आपको कुछ हो गया है, तव राजा के गृह में जाके शिष्यों ने “मोहमुद्र" के श्लोक उच्चारण

करके नृपशरीरस्थ स्वामीजी को सुनाया। सुनते ही आपने नृपतन

१"रावले" राजा का गृह ।।