पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्तिसुधास्वाद तिलक । ३२५ दो० "कलियुग सम नहिं भान युग, जो नर कार विश्वास । गाइ गाइ हरि भक्ति यश, भवतरु विनहिप्रयास॥" (१७१) टीका । कवित्त । (६७२) विधवा को गर्भ, ताकी बात चली ठोर ठौर, दुष्ट शिरमौरनि की भई मन भाइये । चलत चलत वामदेवजू के कान परी, करी निर- धार प्रभु आप अपनाइयै ।। भए जू प्रगट वाल, नाम “नामदेव घस्सो, कखो मन भायो सव सम्पत्ति लुटाइये । दिन दिन बढ्यो, कछु और रंग चंदन्यो, भक्तिभाव अंग मढ्यो, कढ्यो, रूप सुखदाइये ॥१२८॥ (५०१) बार्तिक तिलक । कुछ कालान्तर में जब लक्षणों से उनका गर्भ प्रत्यक्ष जान पड़ने लगा, तब विधवा के गर्भ की वार्ता जहाँ तहाँ लोग मुहाँमुहीं करने लगे, और दुष्टशिरोमणि निन्दकों की मनभाई बात हुई, क्योंकि वे निन्दा करने के लिये छिद्र ढूँढ़ते ही रहते हैं सो मिल गया । वार्ता चलते चलते श्रीभक्तवर वामदेवजी के कानों तक पहुँची, तब आपने एकान्त में पुत्री से पूछा कि “यह क्या बात है ?” इनने वाला-परक, कृपा-युक्त प्रभु के दर्शन देने का तथा अपने को अपना लेने की सत्य सत्य बात, पूरी पूरी कह सुनाई, आप (श्रीवामदेवजी) सुनके अति हर्षित हुए। धन्य आपके भाग्य ।। प्रसवकाल की पूर्णता पर अनुपम वालक प्रगट हुए, श्रीवामदेवजी ने वालक का नाम “नामदेव" वसा और मनमाना जन्मात्सव कर, घर की सम्पत्ति को लुटगया, जय जय। बालक दिन प्रति दिन बढ़ने लगा, इनमें लोक के रंगों से कुछ और ही रंग ( श्रीरामानुरागरंग) चढ़ा, और प्रेम भक्तिभाव से लपेटा हुआ अति सुखदाई सुन्दर रूप का प्रकाश निकलने लगा, क्या कहना।। १"करी निरधार"-निश्चय निर्णय किया, पूछा । २"मढ़यों"= मढ़ा, छाया, लपेटा । .३ "कढ़यो"=निकला।