पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३४५

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Immu- A HEAPHindi श्रीभक्तमाल सटीक । (१७२) टीका । कवित्त ( ६७१) खेलत खेलौना प्रीति रीति सब सेवा ही की, पटपहिरावे, पुनि भोग को लगावहीं । घंटा लै बजावे, नीके ध्यान मन लावे, त्यो त्यो प्रति मुख पा’, नैन नीर भरि आवहीं । बार बार कह नामदेव वामदेव जू सों "देवो मोहिं सेवामाँझ, अतिही सुहावहीं”। “जाऊँ एक गाउँ, फिर पाऊँ दिन तीनि मध्य, दूध को पिवावी, मत पीवी, मोहिं भावहीं ॥१२६॥ (५००) ___ जब श्रीनामदेवजी की पाँच वर्ष के निकट वाल्यावस्था हुई, तब श्राप खेल खेलने लगे, सो और संससि खेल नहीं, किन्तु जैसे अपने नानाजी को पूजा करते देखते थे, वैसे ही, प्रीति रीति से सब सेवा पूजा ही का खेल खेलते थे। कोई पाषाणादिक की मूर्ति कल्पित करके उनको स्नान कराके वस्त्र पहिराते, पुष्प चढ़ाते, भोग लगाते, घंटा बजाके धूप भारती करते और भली भाँति आँखें मूंदके ध्यान लगाते थे, वरंच ध्यान करते समय आपको श्रीप्रभुकृपा संस्कारवश अपूर्व सुख उत्पन्न होता और नेत्रों में प्रेमानन्द का जल भर आता था । यथा- चौपाई। "खेलौं तहाँ बालकन मीला, करौं सकल रघुनायक लीला ॥" कुछ कालान्तर में श्रीनामदेवजी श्रीवामदेवजी से बारम्बार कहने लगे कि "नानाजी ! मुझे अपनी सेवा अर्थात् अपने ठाकुरजी, पूजा करने के लिये, दीजिये, मुझको उसमें बड़ा ही सुख प्राप्त होगा, क्योंकि मुझको सेवा अत्यन्त प्रिय लगती है ॥". इस प्रकार सचाई सहित अति अभिलाषा देख, श्रीवामदेवजी, एक दिन बोले कि "मुझे तीन दिनों के लिये एक ग्राम को जाना है, सो जब जाऊँगा तब तुम पूजा करना, और दूध ठाकुरजी को पिलाना, परन्तु प्रभु को भोग लगाए बिना तुम आप न पीना"। श्रीनामदेवजी ने सुनके कहा कि "हाँ, बहुत अच्छा, यह तो मुझे बहुत ही मला लगता है। १ "सेवा"-अर्चावतार भगवत् की परिचा , ठाकुरजी।