पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३२७ भक्तिसुधास्वाद तिलक। (१७३) टीका । कवित्त । (६७०) कौन वह बरे ? जेहिं घेर दिन फेर होय, फेर फेर कहैं "वह बेर नहीं भाइयें ?”। आई वह बेर, लै कराही माँझ हेरि दूध डाखो युग सेर मन नीके के बनाइयें ॥चौपनि के ढेर, लागि निपटै मौसेर, हग आयो नीर घेरि, जिनि गिरे चूंटिजाईयें। माता कहै टेरि, "करी बड़ी तें अवेर, अब करो मति मेरै" "अजू चित दै औंदाइये" ॥ १३०॥(४६६) वातिक तिलक । जब श्रीवामदेवजी आपको सेवा देके उस ग्राम को चले गए, तब श्रीनामदेवजी को रात्रि ही से छटपटरी लगी और पाप मन में यह विचारने लगे कि “वह वेला कौन है ? कि जिस बेला में फिर दिन आवे, और बारम्बार माता से पूछने लगे कि “माँ अभी सेवा का समय नहीं पाया ?" होते होते वह प्रभात बेला मा गई, आप उठके स्नानादिक और पूजा करके, दो सेर दूध देखभाल छानके कड़ाही में छोड़ औंटने लगे। मन में ऐसी अभिलाषा कर रहे हैं कि “भले प्रकार से दूध को बनाऊँ।" चित्त में प्रभु प्रेम चाहचौप की अति अधिकता है, और अत्यन्त प्रोसेर अर्थात् चिन्ता भी है कि "मुझसे दूध कैसे उत्तम बने जिसमें प्रभु पी लेवें" ऐसी चिन्ता करते में नेत्रों में प्रेमजल भर आया, तब आपने उसको रोका कि कहीं कोई बूंद दूध में न टपक पड़े। माता पुकारके कहने लगी कि "बेटा ! तूने बड़ा विलम्ब लगाया, अब अधिक झेल न कर, शीघ्र भोग लगा"। सुनके आप बोले कि "माता ! मैंने चित्त लगाके दूध औंटा है इससे कुछ विलम्ब हो गया।" १"बेर"==बेला, समय । २ "हेरि = देखभाल के । ३ "चौपनि" प्रेम का चाव । ४ "ढेर- राशि, समूह। ५ "निपट" अत्यन्त । ६ "औसेर"=चिन्ता । ७ "चूंटिनाइये"=रोक न रोक लेना चाहिये । ८ "अबेर" बिलम्ब । ९ "और" शेल. विलम्ब ।