पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३४९

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.00PMAdaraver .44 श्रीभक्तमाल सटीक। पीने का समाचार सुन, मुझे भापकी सेवा पूजा से अलग कर ही देंगे, इससे भला है कि मैं मर ही जाऊँ" इतना कह तीक्ष्ण छूरी ले प्रभु को दिखाके, अपने गले पर लगा ही तो दी। तब तो, वहीं, भक्तवत्सल कृपासिन्धु विश्वासवर्द्धक प्रभु ने अतीव आतुरता से नामदेवजी का छूरी-युक्त-हाथ पकड़ लिया और कहा कि “अरे प्रिय बालक ! ऐसा मत कर, देख, मैं दूध पिये लेता हूँ।" ऐसा समझाके प्रभु कटोरा हाथ में ले, दूध पीने लगे। जब थोड़ा सा दूध रह गया, तब श्रीनामदेवजी बोले कि "महाराज | मेरे लिये भी तो कुछ रहने दीजिये, क्योंकि आपका प्रसाद नाना का दिया मैं सदा ही पाता था।" तब कृपा से बिहँस के अपने अधरामृत का अवशेष प्रभु ने अपने हाथों से ही नामदेवजी को पिलाके भक्ति प्रेमानन्द से तृप्स कर दिया । श्लोक "ध्याने पाठे जपे होमे, ज्ञाने योगे समाधिभिः । विनोपासनया मुक्तिर्नास्ति सत्यं ब्रवीमि ते ॥१॥ ( १७६ ) टीका । कवित्त । (६६७) आये वामदेव, पाछे पू नामदेवजू सों, दूध को प्रसंग, अति रङ्ग भरि भाखिौँ । “मोसी न पिछोनि, दिन दोय हानि भई, तब मानि डर, पान तज्यो चाहौं, अभिलाषिय ॥ पीयो, सुख दीयो जब नेकु, राखि लीयो, मैं तो जीयो.” मुनि वातें, कही "प्यायो कौन साखिय ?" । असो, पै न पीयें खो, प्यायो, सुख पायौ नाना, या मैं लै दिखायौं भक्त वस-रस चाखिय ।। १३३ ॥ (४६६) वात्तिक तिलक । जब श्रीवामदेवजी घर पाए । और श्रीनामदेवजी से पूछने लगे कि “पूजा सेवा नीके करके दूध भोग लगाया करते थे?"। तब श्रीनामदेवजी अति प्रेमानन्द रङ्ग में रंगे हुए दूध पिलाने का सारा प्रसंग कहने लगे, कि "नाना ! मुझसे ठाकुरजी से जान- १"पिछानि" पहिचान । २ "अरयों” अड़े, हठ किया ॥