पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३५१

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३३२ श्रीभक्तमाल सटीक। बार्तिक तिलक 1 श्रीभगवत्कृपा से जब श्रीनामदेवजी की प्रीति-प्रतीति-भक्ति-महिमा प्रति फैली, और सन राजाओं का राजा-म्लेच्छ (सिकन्दर लोदी बादशाह) के यहाँ तक भी आपकी सिद्धाई की वार्ता जा पहुँची, तब उसने श्रापको बुलाके कहा कि “हम सुनते हैं कि आप साहिव को मिले (पहुँचे) हैं, सो हमको भी मिला दीजिये अथवा अपनी कुछ करामात दिखाइये।" मापने उत्तर दिया कि “यदि मुझ में कोई करामात ही होती तो मैं अपनी जीविका के हेतु छीपा का काम क्यों करता ? दिन भरके परिश्रम से जो कुछ मिलता है सो, सन्तों के साथ बाँट खाता हूँ, इसी के प्रताप से अर्थात् जो साधु लोग मुझ पर कृपा करके मुझे दरशन देते हैं. इसी से लोगों में मेरी बड़ाई हो रही है, यहाँ तक कि आपने भी अपने यहाँ मुझे बुला भेजा है।" यह सुन भूप (बादशाह) ने कहा कि, इस मरी हुई गऊ को जिला दीजिये, बस अपने घर चले जाइये ॥” . नूप का हठ देखके, आपने सहज स्वभाव ही से, अर्थात् एक विष्णुपद सप्रेम गान करके, गऊ को जिला दिया । श्लो. "हरिस्मृतिप्रमादेन रामाश्चिश्तनुर्यदा।। नयनानन्दसलिलं मुक्तिदासी भवेत्तदा ॥१॥ यह प्रभाव (करामात ) देख, भूपति (बादशाह) बड़ा ही प्रसन्न हुआ और सुखपूर्वक सादर आपके चरणों पर गिरा ॥ (१७८) टीका । कवित्त । (६६५) "लेवो देश गाँव, जाते मेरो कछु नाँव होय," "चाहियै न कछु” दई सेज मनिई है । धरि लई सीस, “देउँ संग दसबीस नर"

  • बिनती सुनु' जगदीश मारी। तेरो दास, आस मोहिं तेरी इत कर कान मुरारी ॥

दीनानाथ दीन हँ टेरत गायहिं क्यो न जियाओ ? आचे सबै अंग है याके मेरे यहि बढ़ाओ ॥ जो कहो याके करमहि मे नहिं जीवन लिख्यो विधाता। तो अब नामदेव आयुष' ते होहु तुमहिं प्रभु । दाता ॥१॥-जाते" जिससे॥