पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३५४

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+ruard-H-4. 4 4044 4 भक्तिसुधास्वाद तिलक ! .......................... भी आपका प्रभाव न जानके मैंने पलंग को देखना चाहा, सो यह मेरा अपराध पाप क्षमा करके अपने प्रभु से मुझे बचा लीजिये जिसमें वे भी मेरा अपराध क्षमा कर दें" श्रीनामदेवजी ने आज्ञा की कि "जो मेरे प्रभु की क्षमा चाहो तो एक बात करना कि कदापि साधुमात्र को दुख मत देना।" दो० “साधु सताए तीन हानि धर्म अरु वस। टीला" नीके देखिये कोख.रावण, कंस ॥१॥" - यह बात उसने मान ली । पुनः चलते समय आपने यह भी कहा कि "अब फिर मुझको अपने यहाँ न बुलाना, और वहाँ से अपने स्थान (पण्डरपुर) को चले आए। अापने विचारा कि “प्रथम श्रीपण्डरीनाथजी के मन्दिर में जा, आपके गुन गा, तब गृह को चलूं।" __आके देखा तो बिट्ठलदेवजी के द्वारपर लोगों की बड़ी भीड़ है, "यदि पगदासी (पनही) बाहर छोड़ जाऊँगा तो मन में उसका खटका दर्शन तथा पद गाने में विक्षेप करेगा,” इससे धीरे से कपड़े में कर, कटि में बांध, भीतर जा, झांझ हाथों में ले, तब श्रापने पद गाना चाहा।। इतने ही में किसी ने जूती का कारे देख लिया, सो उसने आप को पांच सात चोट लगा, धक्के दे बाहर निकाल दिया। परन्तु, अापके क्षमा- साधुता युक्त मन में किंचित् भी क्रोध न पाया ।। दो० “उमा जे रघुपति चरण रत, विगत काम-मद क्रोध । निज प्रभुमय देखहिं जगत्, कासन करहिं विरोध ॥" (१८०) टीका । कवित्त । (६६३) बैठे पिछवारे जाइ "कीनी जू उचित यह, लीनी जो लगाइ चोट, मेरे मन भाइयें । कान दे सुनो अब चाहत न और कछु, ठोर मोकों यही, नित नेम पद गायें ॥” सुनत ही श्रानिकार करना विफल भए फेखो बार इतै गहि मन्दिर फिराइये । जेतिक वे सोती १ "ठौर"=ठाव ठिकाना स्थान ॥