पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३५५

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MAN... - . + Fe a tin- le+ श्रीभक्तमाल सटीक । मोती व सी उतरि गई, भई हिये प्रीति, गहे - पांव सुखदा- इ ।। ३३७ ॥ (४६२) बातिक तिलक । और नाके, मन्दिर के पीछे बैठ, प्रभु से विनय करने लगे "हे प्रभो यह आपने बहुत ही उचित बात की कि जो मेरे दो चार धौलधके लगवा दिये, क्योंकि मैंने अपराध किया ही था, सो दण्ड देके आपने शुद्ध कर लिया, मुझे यह बहुत ही अच्छा लगा। परन्तु अब मेरी प्रार्थना कान लगाके सुनिये, मैं और कुछ नहीं चाहता, केवल यही चाह मुझे है कि नित्य नेम से जो पद गाया करता हूँ सो गाके सुनाया करूँ, क्योंकि आपकी शरण बोड़ मुझको दूसरा ठौरठिकाना ही नहीं।" यही प्रार्थना इस पद में भी है-- . 'हीन है जाति मेरी, यादवराय ! कलिमें "नामा" यहाँ काहे को पठाय ॥ पातुर्ति नाचे, तालपखावज बाजे, हमारी भक्ति बीठल काहे को राज ॥ पांडवप्रभु जू बचन सुनी जै ।। "नामदेव स्वामी" दरशन दीजै ॥ . इस पद के सुनतेही भक्तवत्सल श्रीकरुणासिंधु प्रभु ने, कृपा से विकल हो सम्पूर्ण मन्दिर को नीचे से (जड़ से) फेर के उसका दार फिरा के, श्रीनामदेवजी के सन्मुख हो, दर्शन दिये। (उस मन्दिर का दार अब तक दक्षिण मुख है।) इस प्रसंग से यह निश्चय होता है कि जो मूर्ति श्री बीठलदेव की, श्रीयामदेवजी ने सेवा के निमित्त अपनी पुत्री (श्रीनामदेवजी की माता) को तथा श्रीनामदेवजी को दी थी, सो इन्हीं प्रधान मूर्ति का द्वितीय विग्रह, उनके गृह के आवान्तर में था । . यह अतिविचित्र चरित्र देख, जितने श्रोत्रिय वेदपाठी पंडा पुजारियों ने धौल धक्के दिये दिलाए थे, तिन सब के मुख ऐसे सूख गये कि जैसे मोती का पानी उतर जाय। और सुखदाई श्रीनामदेवजी के विषे प्रति पीति भाव कर, चरणों में पड़, अपराध की क्षमा कराई। श्रीनाम- देवजी की जय ॥ (१८१) टीका । कवित्त । (६६२) औचकहीं घरमाझ साँझही अगिनि लागी, बड़ो अनुरागी, १ "भाव - पानी, धृति, कान्ति, चमक ॥