पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३५६

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Autta भक्तिसुधास्वादतिलक। रहि गई सोऊ डारियै । कहै “अहो नाथ ! सब कीजिये जु अंगीकार, हसे सुकुमार हरि मोही कौ निहारिये ?” "तुम्हरो भवन और सके कौन आइ इहाँ ?" भए यो प्रसन्न छानिछाई श्राप सारिये। पू* पानि लोग "कौने छाई हो ? छवाइ लीजै, दीजै जोई भावे," "तन मन प्राण वारियै” ॥१३८॥ (१६१) वात्तिक तिलक। एक दिन साँझ के समय अचानक ही भापके घर में आग लग गई, आप तो बड़े ही अनुरागी थे। पंचतत्त्वादि सबको सानुरागभगवतरूप ही देखा करते थे, अतः जो २ वस्तु उस भाग से पृथक भी रह गई थी, सो भी सब उठा २ के श्राप अग्नि में डालके प्रार्थना करने लगे कि "हे नाथ ! ये पदार्थ भी अंगीकार कीजिये ॥" श्रीनामदेवजी का ऐसा सर्वात्मकभाव देख, तथा सप्रेम वचन सुन सुकुमार-शिरोमणि श्रीहरि प्रगट हो, विहँसके पूछने लगे कि "हे नाम- देव ! क्या अग्नि में भी मुझको ही देखते हो ? अर्थात् तुम अग्नि को भी मेरा ही रूप जानते हो ?" आपनेहाथ जोड़ निवेदन किया कि "प्रभो। यह गृह श्रापका है इसमें आपको छोड़ दूसरा कौन आ सकता है ? ॥" इस पर अत्यन्त प्रसन्न होकर रात्रिही भर में सम्पूर्ण गृह का छप्पर आपने अपने ही हाथों से सुन्दर अति विवित्र छा दिया। ___ सबेरे, लोग छप्पर की सुन्दरता देख २, चकित हो हो, आपसे पूछने लगे कि “यह छप्पर अति सुन्दर किसने छाया है ? जिसने छाया हो उसको बताओ तो हम भी छवा लें, जो माँगे सोई छवाई दें॥" आपने उत्तर दिया कि “भाइयो ! वह छान छानेवाला तो रुपए पैसे लेने वाला नहीं है, किन्तु उसपर जब पहिले ही तन मन प्राण सर्वस्व न्योछावर कर दीजिये तब वह ऐसी छावनी का देता है। १"रहि गई"-वध रही । २ "मोही को" निहारिय? क्या तू सबमे मुझे ही देखता है? सवको मुझमय ही समझता है ? सबको मेरा ही रूप जानता है ? ॥