पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३५८

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S A MMMENummaste भक्तिसुधास्वाद तिलक। (१८३) टीका । कवित्त । (६६०) जाके तुलसी हैं ऐसे तुलसी के पत्र माँझ, लिख्यो आधो राम नाम, "यासों तोल दीजिय” । “कहा परिहास करो ? ढरो, है दयाल,” "देखि, होत कैसो ख्याल याकों, पूरी करो, रीझिये" ॥ ल्यायो एक काँटो, बै चढ़ायो पात सोना संग,भयो बड़ो रंगे, समहोत नाहिं छीजिये। लई सो तराजू जासों तुले मन पाँच सात, जातिपाँति हूँ को धन धखो, पै न धीजिये ॥ १४०॥ (१८६) ___ वात्तिक तिलक । इतना कहके, श्रीतुलसीजी के पत्र में आधा श्रीराम नाम अर्थात् "रा मात्र लिखके, पाप बोले कि "यदि दिया ही चाहता है तो इसी भर तौल के दे।" सुन के सेठ ने कहा कि "श्राप हँसी क्या करते हैं, इस पत्र ही भर मैं क्या दूँ ? मुझपर दयालु होके कुछ अधिक अङ्गीकार कीजिये।" श्रीनामदेवजी ने उत्तर दिया कि "मैं इसी नहीं करता, देख तो इसका कैसा कौतुक होता है, इस भर तौल के पूरा तो कर, तब मैं तुझ पर अतिशय प्रसन्न हूँगा।" एक तोलने का काँटा ला के उसके एक ओर वह तुलसीदल और दूसरी ओर सोना साह ने चढ़ाया, परन्तु बड़ा ही रंग मचा कि वह सोना श्रीपत्र के तुल्य न हुआ, वरन् घट गया। तदनन्तर, साहु ने एक ऐसी तुला (तराजू) मँगवाई जिसमें पाँचसात मन वस्तु तुल सके, और उस- पर वह श्रीनामपत्र रखके अपने घर भर का स्वर्णादिक सब धन चढ़ाया तब भी श्रीपत्रवाले पल्लेने भूमि न छोड़ी। फिर अपने जातिभाइयों का धन भी माँग माँग के पल्लेपर चढ़ाता गया, तथापि पूरा न पड़ा, धन का पल्ला अतीव हलका ही रहा । उन सब का प्रिय न हुमा॥ १ "जाके तुलसी है ऐसे"=इसका अर्थ कोई २ महात्मा यों करते है-जिस श्रीनामदेवजी के, श्रीतुलसीजी ऐसे इस प्रकार से है, सर्वस्व हैं, (जैसा बाग के संघट से प्रत्यक्ष है,) सो श्रीनामदेवजी ने श्रीतुलसीपत्र पर "" लिखा । ( श्रीतुलसीजी वैष्णवमात्र के सर्वस्व हैं विशेषतः श्रीनामदेवजी के । २ "ख्याल" रंग, खेल, कौतुक । ३ "रंग" ख्याल, खेल, कौतुक, तमाशा । "तराजू तुला । ५ "न धीजिये"=प्रिय न हुआ, पूर्ण न हुआ, पूरा न पड़ा ।