पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+ ta , श्रीभक्तमाल सटीक। (१८४) टीका । कवित्त । (६५९) पस्यो सोच भारी, दुःख पावें नर नारी, नामदेव ज विचारी "एक और काम कीजिये । जिते बत दान और स्नान किये तीरथ मैं करिये संकल्प या पैजल डारि दीजिये । करेऊ उपाय, पातपला भूमि गाड़े पाँय, रहे वे खिसाय, कह्यो “इतनोई लीजिय" । लेक कहा करें ? सस्वरहूं न करें, भक्ति भाव सों ले भरै हिये, मति अति भीजिये" ॥ १४१ ॥ (४८८) वात्तिक तिलक। यह अर्द्ध रामनाम युक्त तुलसीपत्र के गौरव महत्त्व का कौतुक देखके, सेठ घर के सब स्त्री-पुरुष वर्गों को बड़ाही सोच और दुख हुआ कि कैसे पूरा हो । श्रीनामदेवजी ने विचार किया कि "श्रीरामनाम के सामने धनादिको की तुच्छता तो दिखा ही दी, परन्तु अब यह भी दिखा दूँ कि श्रीनाम के आगे सब धर्म कर्म भी हलके (न्यून) ही हैं, अतः आपने कहा कि "सुनो एक काम और करो कि तुम लोगों ने जितने व्रत, उपवास, तीर्थ स्नान, दान इत्यादि सुकर्म धर्म किये हों, उन सबको भी संकल्प करके वह जल इसपर छोड़ दो अर्थात् सब पुण्य भी चढ़ादो॥" ___ यह उपाय भी किया गया, तथापि श्रीनामपत्र वाला पल्ला भूमि में पाँव जमाए ही रहा, यथा--- दो० "भूमि न छाँड़त कपि चरण, देखत रिपुमद भाग। कोटि विन ते सन्त कर, मन जिमि नीति न त्याग" ॥१॥ तब तो वे सब अति लजित, संकुचित होके कहने लगे कि "महाराजा आप इतनाही ले लीजिये। श्रीनामदेवजी ने उत्तर दिया कि “यह सब धन और पुण्य लेके मैं क्या करूँगा ? क्योंकि तुम सबने स्पष्ट देखा ही कि मेरा धन नो श्रीरामनाम है, उसके आधे के भी तुल्य ये सब नहीं ठहरे, इससे श्रीरामनाम और श्रीभक्ति ही से मैं अपने हृदय १"खिसाय"लजाय । २ "सखर" समता । पाठान्तर “कहा धरै ?"