पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३६०

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...H MM ...HMrs .. .M 4 . . भक्तिसुधास्वाद तिलक । को संतुष्ट रखता हूँ और रक्खूगा, किसलिये कि मेरी मति प्रेम भक्ति रस ही से भीगी है। इससे तुम लोग भी धन धर्माभिमान छोड़ श्रीराम नाम की भक्तिरस में अपनी बुद्धि को भिगोके भव-पार हो ॥"--- दोहा “राका रजनी हरि भगति, राम नाम सोइ सोम । अपर नाम उडगण बिमल, बसें भक्त उर व्योम ॥" (१८५) टीका । कवित्त । (६५८) । कियो रूप ब्राह्मन को दुबरों निपट अंग, भयो हिये रंग, व्रत परिच को लीजियें । भई एकादशी, अन्न मांगत "बहुत भूखो,” "आजु तो न देहौं भोर चाही जितो दीजियें" ॥ कखो हठ भारी मिलि दोऊ ताको शोर पखो, समझावै नामदेव याको कहा खीजियें। बीते जाम चारि मारि रहे यों पसारि पाँच, भाव पै न जान दई हत्या नहीं छीजियें ॥ १४२॥ (४८७) वात्तिक तिलक । अब जिस प्रकार स्वयं प्रभु ने एकादशीव्रत का पन श्रीनामदेव द्वारा दृढ़ाया, सो आख्यायिका कहते हैं- प्रभु के हृदय में यह रंग (कौतुक ) आया कि “एकादशी निष्ठा की परीक्षा लूँ" इस हेतु अत्यन्त दुर्बल ब्राह्मण का रूप बना, एका. दशी को सबेरे ही श्रा, श्रीनामदेवजी से बोले कि “मैं कई दिनों का बहुत ही भूखा हूँ, मुझको अन्न दो।" आपने उत्तर दिया कि “श्राज एकादशीव्रत है, इससे अन्न भोजन न दूँगा, कल सबेरे जितना माँगोगे उतना दूंगा। ब्राह्मणजी ने बड़ा भारी हठ किया कि “मैं अन्न अभी अभी लूँगा, आपने भी हठ किया कि “आज तो मैं अन्न नहीं ही दूँगा।"दोनों के हठयुक्त उत्तर प्रत्युत्तर का बड़ा हल्ला मचा, सुन के बहुत लोग इकडे हो गए, और श्रीनामदेवजी से कहने लगे कि "हम इस मरणप्राय "परिचे"-परीक्षा, जाँच, पर, प्रभाव, प्रभुता । २"शोर "हल्ला, कोलाहल, घने शब्द ।।