पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३६४

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4 -Jmra t a- MIRHABARAHIM + n entatutemenewer Nang भक्तिसुधास्वादं तिलक । नामक ग्राम में "भोजदेव" पिता और “राधादेवी” माता से ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए, सो आपके हृदय में प्रभु सम्बन्धी रसराज (शृङ्गाररस) भरा था, परन्तु उसका स्वाद मन ही मन में लिया करते थे। और विरक्त (वैराग्यवान ) कैसे थे कि गृह को त्याग के वन में भी एक वृक्षतले एक ही दिवस रहते थे दो दिन भी एक के नीचे नहीं, और तनुक्रिया निर्वाह के हेतु केवल एक गुदड़ी (कथा) और एक कमण्डलुमात्र रखते थे। उसी काल की वार्ता है कि एक ब्राह्मण श्रीजगन्नाथजी को अपनी कन्या प्रतिज्ञापूर्वक देने को कह गया, जब वह लड़की अवस्था में उस योग्य हुई, तो उसको देने के लिये वह विप्र श्रीजगन्नाथजी के पास लाया, प्रभु की मात्रा हुई कि "जयदेवजी नामक आश्चर्यरसिक भक्त मेरे ही स्वरूप है, सो इसी क्षण ले जाके और मेरी आज्ञा उनसे सुनाके, यह अपनी सुता उन्हीं को दे दो।" ( १८९ ) टीका । कवित्त । ( ६५४) चल्यो बिज तहाँ, जहाँ बैठे कविराजेराज, "अहो महाराज ! मेरी सुता यह लीजिये। “कीजिये विचार, अधिकार, विस्तार जाके, ताहि को निहारि, सुकुमारि यह दीजिये ॥ "जगन्नाथदेवजू की श्राज्ञाप्रतिपाल करो, दरो मति धरो हिये, ना तो दोष भीजिय" । "उनको हजार सोहैं हमको पहार एक, ताते फिरि जावो, तुम्हें कहा कहि खोजिय"॥१४५॥(४८४) वात्तिक तिलक। श्रीजगन्नाथजी की यात्रा सुन कन्या लिये हुए ब्राह्मण जहाँ कवि- राजराज श्रीजयदेवजी श्रीप्रभु का स्मरण करते हुए बैठे थे, वहाँ जाके मापसे प्रार्थना की कि “हे महाराज ! यह अपनी कन्या मैं आपको अर्पण करता हूँ, इसका कर ग्रहण कीजिये।" धापने उत्तर दिया कि “आप विचार कीजिये,जिसको कन्या लेने का अधिकार और गृहस्थाश्रम का विस्तार हो, उसी को यह सुन्दरि कुमारी दीजिये ॥"