पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+ + + + + + 4 श्रीभक्तमाल सटीक। ब्राह्मण बोले कि “महाराज ! मैं जो अपनी इच्छा से कन्यादान करता तो विभव विचार अवश्य करता, परन्तु मैं तो श्रीजगन्नाथदेवजी की आज्ञा से आपको कन्या दे रहा हूँ इससे उनकी आज्ञा को श्राप भी प्रतिपाल कीजिये, और कन्या को ग्रहण करना हित मान, अपनी मति में धारण कर, प्रभु की अनुवर्तन कीजिये, नहीं तो "प्रभुयाना- भंग का बड़ा भारी दोप आपको लगेगा।" इस पर श्रीजयदेवजी बोले कि "मैं श्रीजगन्नाथजी की ऐसी आज्ञा पालन करने में समर्थ नहीं हूँ। वे प्रभु समर्थ हैं उनको सहस्रों (हजारों) सुन्दर खियाँ शोभा देती हैं, पर मुझे तो एक ही स्त्री पहाड़ है, अर्थात् जैसे दुर्वल निर्वल मनुष्य को पहाड़ का चढ़ना उतरना लाँघना अगम् होता है, अथवा पहाड़ का उठाना असक्य है, वैसे ही मुझको एक ही स्त्री का सँभाल अतिशय अगम असह्य है, इससे आप यहाँ से चले ही जाइये, हम आपको और क्या वात कहके रिसाएँ ।" ( १९० ) टीका । कवित्त । (६५३ ) सुतासों कहत "तुम बैठि रहो याही ठौर, आज्ञा सिरमौर मोक्ष नाहीं जाति टारी है"। चल्यो अनखाइ समझाइ हारे वातनि सों, “मन तू समझ, कहा कीजै ? सोच भारी है। बोले दिज-बालकी सों "आप ही विचार करो, धरोहिये ज्ञान, मो मैं जाति न सँभारी है" । बोली कर जोरि “मेरो जोर न चलत कछू, चाहो सोई होहु, यह वारिफेरि डसि है” ॥ १४६ ।। (४८३) वार्तिक तिलक। तव भक्त ब्राह्मण ने अपनी कन्या से कहा कि “तू इसी ठौर इन्हीं के पास बैठ रह, क्योंकि त्रयलोक्य-शिरोमाण श्रीजगन्नाथजी की आज्ञा मुझसे टारी नहीं जाती,” ऐसा कह, कन्या को विठला (बैठाय), ब्राह्मण कुछ अनखाके चल दिया । भाप बहुत प्रकार १ "सिरमौर"-शिरोमणि। २ "अनखाइ"-अमर्प करके, सक्रोध। "यालकी"-बालिका, कन्या, लड़की । ४ 'जोर=वल । ५ "वारिफेरि झरी"न्योछावर हुई । पाठान्तर "मेरे'।