पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३६६

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३४७ +ma+r- Hindi++ Htta भक्तिसुधास्वाद तिलक । की वार्ता से ब्राह्मण को समझाके हार गए, परन्तु ब्राह्मण ने नहीं ही माना, आपकी एक न सुनी॥ आप अपने चित्त में कहने लगे कि “रेमन! तू समझ, विचार कर कि अब क्या करना योग्य है ? यह बड़े भारी सोत्र की वार्ता श्रा.पड़ी॥" और विप्रसुता से बोले कि "तुम अपने पति की योग्यता तथा योगक्षेम निर्वाह श्रादिक को विचार करो, जैसा करना उचित है वैसा ज्ञान हृदय में धारण करो, मेरे पास मत बैठी रहो, क्योंकि तुम्हारा सारसँभार मुझसे नहीं होने का ॥" श्रीपद्मावतीजी आपकी पूर्वजन्म-सम्बन्ध-सौभाग्यवती तो थी ही, यह सुन हाथ जोड़ बोली कि “नाथ ! मेरा कुछ बल विचार नहीं चलता, अब जो चाहे सो हो, मैं तो पिता के देने से तथा प्रभु-आज्ञा से, आपको श्रीजगन्नाथ ही जान, अपना नाथ मान, आपके ऊार तन मन से न्योछावर हो आपकी हो चुकी-॥". ( १९१ ) टीका ! कवित्त । ( ६५२) 'जानी जब “भई तिया किया, प्रभु जोर मो पैं, तो पै एक झोपड़ी की छाया करि लीजिये । भई तव छाया, श्याम सेवा पधराइ लई, "नई एक पोथी मैं बनाऊँ,” मन कीजिये ॥ भयो जू प्रगट “गीत" सरस "गोविन्द” जू को, मान में प्रसंग "सीस मंडन सो (को) दीजिये। यही एक पद मुख निकसत सोच परखो, घरखो कैसे जात ? लाल लिख्यो, मति रीझियै ।। १४७॥ (१८२) वार्तिक तिलक । इस प्रकार जब श्रीपद्मावतीजी से सुबुद्धि-विनय प्रीति-पतिव्रत- भरा हुआ उत्तर श्रीजयदेवजी ने सुना, तब जाना कि "यह मेरी पत्नी हुई, क्योंकि श्रीजगन्नाथजी ने मुझ पर अपनी प्रभुना का बल किया, अब मेरी कुछ नहीं चलने की । इससे उचित है कि १ "छाया" - छांह कुटीर, झोपड़ी, गृह । २"धरयो कैसे जात ?"-किस प्रकार से लिखा जा सके?