पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३६७

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३४८ श्रीभक्तमाल सटीक। झोपड़ी की छाया कर लूँ" ऐसा विचार सज्जनों से कहकर एक कुरी बनवा ली। जब छाया हो गई, तब श्रीश्यामसुन्दरजी की मूर्ति सेवा के हेतु पधरा ली, क्योंकि गृह कुटी में रहके, जो भगवतमूर्ति की पूजा कर अन्न को भोग लगाके प्रसाद नहीं पाते, अपने ही लिये बनाके खा लेते हैं, वे पाप ही भोजन करते हैं (ऐसा श्रीगीताजी में लिखा है)। श्लोक-"यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।। भुञ्जन्ते तेत्वघं पापायेपचन्त्यात्मकारणात् ॥ (३३१३) कुछ काल में श्रीप्रभुप्रेरणा से आपके हृदय में इच्छा हुई कि "मैं श्रीप्रभुचरित्रमय एक नवीन पुस्तक बनाऊँ" तब "श्रीगोविन्द"जी का अतिसरस “गीत" अर्थात् "श्रीगीतगोविन्द" प्रगट हुआ ॥ उसमें जब श्रीराधिकाजी के महामान का प्रसङ्ग आया, तो उस स्थान पर ध्यान भावना में भापको श्यामसुन्दरजी की विनय श्रीप्रियानी प्रति यह पद स्फुरित हुआ कि "स्मर-गरल-खण्डनं ममशिरसि मण्डनं देहि पदपल्लवमुदारम्” (हे प्रिये ! कन्दर्प का विष खंडन करनेवाला और मेरे मस्तक का मण्डन भूषण, अपना उदार पदपल्लव मेरे शीश पर रख दीजिये), इसी एक पद के मुख से निकलते ही, श्रीजय- देवजी को सोच संकोच हुआ कि “इस प्रकार का पद पोथी में कैसे लिखू" तव सोच विचार करते स्नान को चले गए। इतने में श्रीराधा- रमणजी ने, जयदेवजी के स्वरूप से आके जयदेवजी की मति में रीझ के, जो पद स्फुरित हुआ था वही पद पुस्तक में आप ही लिख दिया। पुनः जबजयदेवजी स्नान करके श्राए और पुस्तक में वह पद लिखा देखा, तब पद्मावतीजी से पूछा कि “यह पद किसने लिख दिया?" उसने कहा "अभी अभी पापही तो आके लिख गये हैं" जयदेवजी ने कहा कि “मैंने तो नहीं लिखा" तब यह निश्चय हुआ कि प्रभु आपही लिख गए हैं।