पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३६८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। (१९२) टीका । कवित्त । (६५१) । नीलाचल धाम तामैं पंडित-नृपति एक, करी यही नाम परि पोथी सुखदाइयै । द्विजन बुलाइ कही "वही है, प्रसिद्ध करो, लिखि लिखि पढ़ा देश देशनि चलाइये" ॥ बोले मुसुकाइ विष क्षिण सो दिखाइ दई “नई यह कोऊ मति अति भरमाइये। धरी दोऊ मंदिर में जगन्नाथदेवजू के, दीनी यह डारि, वह हार लप- धाइये ॥ १४८ ॥ (४८१) वात्तिक तिलक । जब श्री “गीतगोविन्द जी बनके पूर्ण हो गए और प्रभु अनु- गृहीत जान सब कोई पढ़नेगाने लगे, तब इसको देखके श्रीजगन्नाथधाम का राजा जो पण्डित था, सो उसने भी यही (गीतगोविन्द) नाम खके दूसरी एक सुखदाई पुस्तक बना ब्राह्मण पण्डितों को बुला, पुस्तक देकर कहा कि “यह वही गीतगोविन्द है इसको लिख २ के पढ़ो, और देश देश में प्रसिद्ध करो चलायो।" यह सुन पण्डितों ने श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द राजा को दिखाके मुसक्याके उत्तर दिया कि “राजन ! वह गीतगोविन्द तो देखिये यह है, और यह दूसरी किसी ने नई बनाई है, हमारी मति में अत्यन्त भ्रम होता है।" इस पर, दोनों पुस्तकें श्रीजगन्नाथजी के मन्दिर में रख दी गई। तब प्रभु ने इस राजावाली पुस्तक को अलग फेंक के, 'श्रीजयदेव- कृत गीतगोविन्द' को पदिक हार की नाई अपने हृदय में लपटा लिया और कोई कहते हैं कि जयदेवजी के गीतगोविन्द में हार लपेट दिया । (१९३) टीका । कवित्त । (६५०) पत्रो सोच भारी, नृप निपट खिसानो भयो, गयो उठि सागर मैं, "बूड़ों वही बात है । प्रति अपमान कियो, कियो मैं बखान सोई, गोई जात कैसें ?" आँच लागी गात गात है ॥ श्राना प्रभु । दई “मत बूड़े तू समुद्र माँझ, दूसरो न ग्रन्थ ऐसो, वृथा तनुपात