पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३६९

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+-+- + + 4 - . . . 4 . M . . . H - -- 1 - 1- 44444 श्रीभक्तमाल सटीक । है। द्वादश सुश्लोक लिखि दीजै सर्ग-द्वादश. मैं, ताहि संग चले जाकी ख्याति पात पात है ॥ १४६ ।। (४८१) वात्तिक तिलक । , जब श्रीजगदीशजी ने उस पुस्तक का अादर करके राजा की पोथी का निरादर कर दिया तब राजा को बड़ा ही शोक हुआ, तथा अति संकुचित गलित मान होकर, उठके समुद्र की दिशि चल दिया, और मन में यह निश्चय किया कि “अब मैं समुद्र में डूब के मर जाऊँ, सो भला है, क्योंकि जो जयदेवजी ने कहा सोई मैंने वखान क्रिया और प्रभु ने मेरा इस प्रकार का अतिशय. अपमान किया, तिसको मैं कैसे छिपाऊँ।" इस प्रकार राजा सर्वाङ्ग संतप्त होकर डूबने ही तो लगा॥ . सो देख, भक्तवत्सल करुणाकर श्रीजगन्नाथजी ने प्रगट होकर आज्ञा दी कि “तुम समुद्र में मत डूबो, मैं सत्य सत्य कहता हूँ जयदेवजी के ग्रन्थ सरीखा तुम्हारा तथा और कोई ग्रन्थ है ही नहीं, तुम वृथा ही शरीर त्याग करते हो । एक बात करो कि अपने ग्रन्थ के बारह श्लोक जिस गीतगोविन्द की प्रसिद्धता विरादरूपी वृक्ष के पत्रों पत्रों में है अर्थात्, मनुष्यों मनुष्यों में है उसी में लिख दो, उसी के साथ साथ तुम्हारे भी द्वादश श्लोक चलेंगे (मसिद्ध होंगे.॥" . राजा ने हर्षपूर्वक प्रभु की आज्ञा मानकर ऐसा ही किया। ... (१९४) टीका । कवित्त । (६४९) .. 'सुता एक माली की जु बैंगन की पारी माँझ तोरे, "वनमाला" गावै कथा सर्गपाँच की। डोलैं जगन्नाथ पाळे, का, अङ्ग मिहीं मँगा, "आछे” कहि धूमैं सुधि श्रावै विरहाँच की ॥ फट्यौ पट देखि नृप पूछी "अहो भयो कहा?" "जानत न हम" "अब.कहो बात साँच की। प्रभु ही जनाई “मन भाई मेरे वही गाथा" ल्याए वही बालकी की पालकी मैं नाँव की ॥ १५० ॥ (४७०) १ “पात पात"=सर्वमाहि, सबमे ! "बिरहाँच"-बिरह की ऑच, विरहाग्नि, ताप । ३ "नांच की" -नृत्य किया ।। ६ १