पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७१

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HEAT HA -14 + - +- श्रीभक्तमाल सटीक । जब लाल प्यारी ढिग हिले मानि" ।। सुनि यह रीति एक मुग़ले ने धारि लई, पढ़े चढ़े घोड़े.आगे श्यामरूप ठानिक । पोथी को प्रताप स्वर्ग गावत हैं देववधू श्रापही जु रीझि लिख्यो निज कर श्रानिक ॥ १५१ ॥ (४७८) वात्तिक तिलक । श्रीगीतगोविन्द इस प्रकार प्रभु को प्रिय जानकर श्रीपुरुषोत्तमपुरी के राजा ने सर्वत्र डौंडी (ढंढोरा) फिरवा दिया, क्योंकि उक्त ग्रन्थ के गान की वात्तो बड़ी ही गहिरी जानी, और यह पुकार करा दिया कि "राजा हो अथवा रंक हो परन्तु श्रीगीतगोविन्द को अच्छे ठौर ठिकाने पर पढ़े और मधुरता से अक्षरों को उच्चारण कर मधुर ही स्वर से गान करे तथा गाते समय अपने मन में ऐसा निश्चय मानले कि श्रीराधिकाश्यामजी मेरे समीप ही में सुन रहे हैं।" राजा की पुकार कराई हुई इस वार्ता को एक मुग़ल जाति के यवन ने सुनकर अपने मन में निश्चय कर धर लिया, और घोड़े पर चढ़ा चला जाता श्रीगीतगोविन्द का पद गान करता था। इसके विश्वास पर रीझके श्रीश्यामसुन्दरजी ने अनूप रूप धारण कर आगे आके दर्शन दिया, तथा संसारसागर से उसको मुक्त भी कर दिया ॥ श्रीगीतगोविन्द पुस्तक के प्रताप को स्वर्ग में देववधू गान करती हैं क्योंकि जिससे रीझके स्वयं प्रभु ने आके निज करकमल से पूर्वकथित ("स्मरगरलखण्डनं” इत्यादि) पद लिख दिया । इससे इसकी महिमा जहाँ तक कही जाय सो सब युक्त ही है। (१९६) टीका । कवित्त । (६४७) पोथी की तो बात सब कही मैं सुहात हिये, सुनो और वात जामें अति अधिकाइये । गाँठि में मुहर मग चलतमैं ठग मिले, "कहो कहाँ जात?" "जहाँ तुम चलि जाइयें ॥"जानि लई बात, खोलि द्रव्य पकड़ाइ दियो, लियो चाहो जोई नोई सोई मोकों ल्याइयें। १"मुगल -"-यवन जातिविशेष ॥