पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७२

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4+MMELA MMATAMPETENAMUHAMPA भक्तिसुधास्वाद तिलक । दुष्टनि समुझि कही “कीनी ईनी विद्या अहो भावै जो नगर इन्हें बेगि पकराइये ॥ १५२ ॥ (४७७) वात्तिक तिलक। श्रीगीतगोविन्द पुस्तक की रचना और प्रभु प्रिय होने की, अपने तथा सज्जनों के हृदय की, सुहाती वाचा तो मैंने सब ही कह दी, परन्तु श्रीजयदेवजी के चरित्र की और वाचा सुनिए कि जिसमें उनकी शान्ति, सहनशीलता, साधुता की अति अधिकाई है। .. एक समय आप सन्तसेवा भंडारा के वास्ते अन्न घृतादि सामग्री लेने को द्रव्य मोहर गाँठ में बाँधे हुए ग्रामान्तर को चले जाते थे, देवयोग मार्ग में कई ठग (चार) मिल गए, तब आपने पूछा कि कहाँ जाते हो ? चोरों ने कहा "जहाँ तुम जाते हो ।" तव श्री- जयदेवजी ने जान लिया कि "ठग हैं ऐसा न हो कि द्रव्य के हेतु मेरे भजन-सहायक शरीर का घात करें," इससे गाँठ से छोर (खोल) के सब द्रव्य चोरों को दे दिया। परन्तु दुष्ट इस साधुता को उलटा ही समझ आपस में कहने लगे कि देखो इसने यह अपनी बुद्धिमानी की है कि अभी द्रव्य देहूँ, जब नगर ग्राम आवे तब इन सबों को शीघ्र पकड़ा दूँ॥ (१९७) टीका । कवित्त । (६४६) एक कहै "डारी मार, भलो है विचार यही," एक कहे "मारौ मत, धन हाथ आयो है ॥", "जो पै ले पिछान कहूँ कीजिये निदान कहा," हाथ पाँव काटि वड़ो गाइ पधरायो है । श्रायो तहाँ राजा एक, देखि के विवेक भयो, छयो उजियारो, श्री प्रसन्न दरसायो है । बाहिर निकासि मानो चन्द्रमा प्रकाश राशि, पूछयो - इतिहास; कह्यो “ऐसो तनु पायो है" ॥ १५३॥ (४७६) ___ वात्तिक तिलक। ऐसा सुन एक ठग बोला कि “जब इसने ऐसी चातुरी की है. तो इसको मार डालना ही अच्छा-विचार है" यह सुन और ठग :कहने लगे कि “मारो मत क्योंकि धन तो हमारे हाथ या ही गयो" अंब