पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७४

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भक्तिसुषास्वाद तिलक। पाए।" ऐसा विचारकर श्रापको पालकी पर बिठाके अपने घर में लिवा लाया और कटे हुए हाथपगों के ठूलों को प्रोषध से अच्छा कराया। फिर, श्रापके पास श्रा, प्रणाम कर, राजा बोला कि "हे स्वामीजी! यह भापका भागमन और हाथ पग का अच्छा हो जाना अति उत्तम हुधा परन्तु अब मुझको कुछ हितोपदेश तथा श्राज्ञा दीजिए।” राना की विनय सुन श्रीजयदेवजी ने बाबा दी कि "दिव्य मन्दिर बनवाके श्रीभगवान की मूर्ति पधराओ, और नित्य सेवा पूजा मेवा मिठाई भोग अर्पण करो, तथा प्रभु के आगे सन्तशाखा बनवाके उसमें प्रति प्रेम से साधुसेवा करो। और, जो सन्त भावें तिनका दर्शन करके प्रेमरस में भीजि जाया करो।" - आपकी आबा मस्तक पर धारण कर राजा इसी प्रकार करने लगा। तन, मन, धन अर्पण पूर्वक राजा कृत सन्तसेवा सुनके वे सब ठग भी चमाचम-तिलक तथा माला धारण कर साधु वेष बनाके पाए। श्रीजयदेवजी उन सबों को देखते ही अति प्रीतिहर्षाकुल होके बोले कि “आइये २" और समीप के लोगों से कहने लगे कि “ये सब मेरे बड़े गुरुभाई हैं । इनको दर्शन और प्रणाम करो ॥" (१९९) टीका । कवित्त । (६४४) नृपति बुलाइ कही हिये हरि भाय भरे, "ढरे तेरे भाग, अब सेवा फल लीजियै” । गयो लै महल माँझ टहल लगाए लोग, लागे होन भोग, जिय शंका तन कीजिये।माँग बार-बारविदा, राजा नहीं जान देत, प्रति अंकुखाये, कही स्वामी "धन दीजिय" । दे बहु भाँति सो, पठाए संग मानुस हूँ, "श्रावो पहुँचाय तब तुम पर रीमिय” ॥ १५५ ॥ (४७४) वातिक तिलक । श्रीजयदेवजी ने राजा को बुलवाके कहा कि "हे राजा ! श्री- -- - - - - -- - -- "हरे" आप है, पधारे हैं । २ पाठान्तर "अकृताए"। अतित्वरा को अति शीघ्रता चाही । ३ "मानुस ह"मनुज हूँ, मनुष्य भी।