पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७५

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+ + + ++ + ++ + + श्रीभक्तमाल सटीक भगवत् के प्रेमभाव से भरे हुए हृदयवाले ये सन्त तुम्हारे भाग्यवश भाज पधारे हैं, अाज तक तुमने जितना सन्तसेवा की है तिसका फल श्रव इनकी सेवा करके लो। थापकी प्राज्ञा मान राजा ने अतिहर्प से उनको ले जाकर अपने राजभवन में सों का श्रासन निवास दिया, और बहुत मनुष्यों को सेवा टहल में लगा दिया। नित्य नवीन भोग पदार्थ अर्पण करने लगा। तथापि, वे दुष्ट तो अति ही अपराधी थे, इससे जी में यह शंका हो रही थी कि "जयदेवजी हम सबों को मरवा ही डालेंगे।" श्रतएव मयों का शरीर सूखा जाता था। वे ठग वारम्बार विदा माँगते परंतु भक्त राजा नहीं जाने देता, जब ठग लोग अतिही अकुला गधे, बड़ी शीघ्रता मचाई, तव श्रीजयदेवजी ने उनकी शंका जानकर राजा को याज्ञा दी कि "ये सन्त हैं, रजोगुणी के यहाँ इतना ही बहुत रहे, अव धन वखादिक देके विदा कर दो।" __ श्रापकी यात्रा सुन राजा ने रत्न सुवर्ण मुद्रादि बहुत प्रकार का धन देके विदा किया, और वह धन ले जाने में रक्षा करने के लिये बहुत से मनुष्य साथ कर उनसे कहा कि "अच्छे प्रकार सन्तों को पहुँचाकर श्रावोगे तब तुम लोगों पर मैं अति ही प्रसन्न होकर बहुत द्रव्य दूंगा।" (२००) टीका । कवित्त (६४३) पू नृप-नर “कोऊ तुम्हरी न सरवर, जिते आए साधु ऐसी सेवा नहीं भई है। स्वामी जू सौं नातो कहा ? कहो हम खाँइ इहा, "राखियो दुराइ, यह बात अति नई है ॥ हुते एक ठौर नृप चाकरी में तहाँ इन किया ई विगार "मारिडारों" आज्ञा दई है। राखे इम हितू जानि, लै निदान हाथ पाव,वाही के ईसान अब हम भरि लई है" ॥१५६॥(४७३) वात्तिक तिलक । - इस प्रकार जब चलके मार्ग में पाए तब- राजा के सेवक लोग १ "सरवर"=तुल्यता । २ "इसान" इहसान, उपकार भलाई ॥