पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७६

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InMun rave- -+ Mantmurgul-Atamani NAMRO--1100011-JAPARH भक्तिसुधास्वाद तिलक । उनसे पूछने लगे कि “महाराज ! आप सबों के समान कोई महात्मा नहीं है. क्योंकि यहाँ जितने सन्त पाए हैं उनमें किसी की भी ऐसी सेवा नहीं हुई, भाप कृपा करके कहिए हम लोग अति विनय करके हाहा खाते हैं, स्वामीजी से आप सबों से क्या नाता सम्बन्ध है ?" यह सुन दुष्ट बोले कि “हम कहते तो हैं परन्तु यह बात बहुत नवीन (श्राश्चय्यमय) है, इससे छिपा रखना, कहीं कहना नहीं । प्रथम हम लोग और ये स्वामीजी एक ही राजा के चाकर थे, वहाँ इन्होंने बहुत ही बुरा काम किया था, राजा ने आज्ञा दी कि इसको मारडालों तब हम लोगों ने अपना हितू जानके इनके प्राण की रक्षा की, केवल हाथ पग काटके राजा को दिखा दिये थे। उसी उपकार के पलटे में अब हमने यह सेवा सत्कार धन सब ले लिया है।" . (२०१) टीका । कवित्त । (६४२) फाटि गई भूमि, सब ठग वै समाइ गए, भए ये चकित दौरि स्वामीजू पै पाए हैं । कही जिती बात सुनि गात गात काँपि उठे, हाथ पाँव भीड़ें भए ज्यों के त्यो सुहाए हैं ॥ अचरज दोऊ नृप पास जा प्रकाश किये जिए एक सुनि आए वाही ठौर पाए हैं। पूछ बारबार सीस पायनि पै धारि रहे कहिए उघारि कैसे मेरे मन भाएं हैं ॥१५०॥ (१७२) वार्तिक तिलक। . श्रीजयदेवजी ने इस प्रकार की क्षमा साधुता की, परन्तु दुष्टों के चित्त में एक भी न चढ़ी, उलटे निन्दायुक्त ही वचन कहे, इससे यद्यपि श्रीभूमिजी का “सर्वसहा" नाम है तथापि इन सन्तद्रोहियों की सहि न सकी, जितने में ठग थे, उतनी भूमि फट गई ! दुष्ट रसातल को चले गए । राजा के मनुष्य देखके अतिचकित हुए और दौड़के स्वामीजी के समीप या संपूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया । सुनके श्रीजयदेवजी सर्वाङ्ग १ "उधारि"=प्रगट कर, खोलके ।। .