पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७७

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ama -1-ma ... htt+H H 4 /+ ३५८ श्रीभक्तमाल सटीक । कंपित होकर हाथ पग मीड़ने लगे। मीड़ते ही आपके कर तथा चरण सुन्दर ज्यों के त्यों निकल पाए॥ दुष्टों का भूमि में समाजाना तथा आपके हस्त पद ज्यों के त्यों हो जाना, ये दोनों आश्चर्य देख राजा के सेवकजनों ने राजा को आ सुनाया, आपके हाथ पगों का यथार्थ हो जाना सुनकर नृप ऐसा प्रसन्न हुआ कि जैसा मरणप्राय पुरुष अमृत पीके जी उठे, और दौड़कर श्रीजयदेवजी के पास आके चरणों में सीस घर बारम्बार पूछने लगा कि "हे महाराज ! मेरे मनभावते आपके ये हस्त पद कसे अच्छे हो गए? और वे लोग भूमि में क्यों समा गए ? कृपा करके इस आश्चर्यचरित्र का मर्म खोलके कहिए।" (२०२) टीका । कवित्त । (६४१) राजा अति औरि गही, कही सब बात खोलि, निपट अमोल यह सन्तन को देस है । कैसौ अपकार करें तऊ उपकार करै ढरै रीति अपनी ही सरस सुदेस है । साधुता न त कमैं जैसे दुष्ट दुष्टता न, यही जानि लीजै मिले रसिक नरेस है । जान्यो जव नाँव ठाँव "रहो इहाँ बलिजाँव भयो मैं सनाथ, प्रेम भक्ति भई देस है"॥१५८॥ (४७१) वात्तिक तिलक। जब राजा ने, श्रीजयदेवजी के चरणों में सिर धर के, अति ही इठ ग्रहण करके पूछा तब आप अपना नाम ग्राम तथा ठगों की करनी सब वार्ता यथार्थ कहकर, हितोपदेश करने लगे कि "राजर ! वे ठग अत्यन्त अयोग्य सन्तों का वेष बनाके पाए, इसी से मैंने उनका अतिशय सत्कार कराया, भगवद्भक्त को ऐसा ही गति है कि कोई कैसे हूँ अप- कार करे तब भी उसका उपकार ही करें, अपनी सरस सुदेश रीति ही से चलें, कभी साधुता को न त्याग करना चाहिए। जैसे दुष्ट अपनी दुष्टता कभी नहीं त्याग करता, यह निश्चय जान लो कि इसी प्रकार की साधुता से प्रभु-रसिक नरेश मिलते हैं।" १ "मारि" हठ । २"खोलि" स्पष्ट करके, गुप्तं न रखके, प्रगट ।।