पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७८

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Anninger + + + भक्तिसुधास्वाद तिलक । ३५९ जब श्रीजयदेवजी के कहने से राजा ने जाना कि किन्दुबिल्व- वासी श्रीगीतगोविन्द काव्य के कर्ता आप ही हैं, तब तो अति ही प्रेम भाव में भरके प्रार्थना करने लगा कि "हे प्रभो । मैं भाप के ऊपर न्योछावर होता हूँ, अब भाप श्रीपद्मावतीजी सहित यहाँ ही रहिए. मैं सनाथ होऊँ, जब से आप बिराजे तब से इस नगर तथा देश में भगवद्भक्ति उत्पन्न हुई, अब उसको बढ़ाइये, और मुझ पर कृपा कीजिये ।" (२०३) टीका । कवित्त । (६४०) गयो जा लिवाय ल्याय कविराज-राज-तिया, किया लै मिलाप श्राप रानी दिग भाइ है । मखो एक भाई वाको, भई यों भौजाई सती. कोऊ अङ्ग कादि, कोऊ कूदि परी धाइ है ॥ सुनत ही नृपवधू निपट अभी भयो इनके न भयो फिरि कही समुभाइ है । "प्रीति की न रीति यह बड़ी विपरीति अहो छुटै तन जबे प्रिया पान बुटि जाइ है" ।। १५६॥ (४७०) वात्तिक तिलक । राजा ने अपनी प्रार्थना श्रीजयदेवजी को अङ्गीकार कराकर किन्छविल्व से सादर श्रीपद्मावतीजी को लाके दोनों मूर्ति का मिलाप करा दिया, और भक्तराजा की रानी भी श्रीपदमावतीजी के दर्शन सतसङ्ग को आया करती थी । एक दिवस कविराजकान्ताजी के पास रानी बैठी थी । उसी समय किसी किंकरी ने सुनाया कि "आपके भाई का शरीर छूट गया, सो आपकी भौजाइयाँ कोई सती हो गई, कोई शम्र से अंग काटके मर गई, कोई दौड़कर चिता में कूद पड़ी ।" रानी यह सुन, उन सबों के प्रीति पातिव्रत का परम पाश्चर्य मान, विस्मित हुई, पर श्रीपद्मावतीजी ने इस बात का कुछ आश्चर्य न किया, किन्तु रानी को समझाकर कहने खी कि "यह प्रीति की रीति नहीं है, शस्त्र से मर जाना, जर जाना बड़ी विपरीति गति है, प्रीति की रीति तो यह है कि प्रिय पति का शरीर छूटते ही प्रिया के पाप छुट जाय ॥