पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३७९

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श्रीभक्तमाल सटीक. (२०४) टीका । कवित्त । (६३९) । "ऐसी एक आप” कहि, राजा सू यूँ बात कही "लैक जाम्रो बाग स्वामी नेकु, देखों प्रीति कों"। "निपट विचारी बुरी. देत मेरे गरे छुरी,”तिया-हठ मानि करी वैसे ही प्रतीति को ॥ पानि कहे "आप पाय” कही यही भाँति श्राय, बैठी दिग तिया देखि लोटि गई रीति को। बोली "भक्तवधू अजू । वे तो हैं बहुत नीके, तुम कहा औचक ही पावतिही भीति को" ॥ १६॥ (१६६) - वात्तिक तिलक । श्रीपद्मावतीजी के वचन सुनके भक्तराजा की धी बोल उठी कि "ऐसी प्रेममूर्ति तो जगत् में एक भापही हो" ऐसा कहके, फिर उसने राजा से जाके सब वार्ता कही, और साथही यह बात भी, अाग्रह- पूर्वक कही कि "आप स्वामीजी को वाटिका में तनक लेके जाइये, तो मैं भला इनकी प्रीति देवू तो।"भक्त राजा ने उत्तर दिया कि "तूने ऐसा विचार बहुत ही बुरा किया है, तू मेरा गला ही काटा चाहती है ।" कुसंग से कहाँ हानि नहीं हुई ? दुष्टा रानी के हठ भाग्रहवश उसके वचन में प्रतीति करके राजा ने वैसा ही किया। उस त्रिया ने एक टहलनी को सिखा रखा था, जब वह श्रीपद्मा- वतीजी के पास बैठी हुई थी, उसी क्षण वह लौंडी 'आकर सिखाई बनाई दुख की रीति से बोली कि “स्वामीजी तो वैकुण्ठ- धाम पा गए" यह सुन राजा की बी रो रो कर कुरीति से भूमि में लौट गई। . पर, श्रीजयदेवप्रियाजी ने कहा कि "हे भक्तवधू ! तुम व्यर्थ ही थोखे में पड़ती और भयभीत होती हो, श्रीस्वामी महाराज तो बहुत अच्छे विराज रहे हैं ।।" (२०५) टीका । कवित्त । (६३८) ." भई लाज भारी पुनि फेरिक सँवारी दिन वीति गए कोऊ, जव १ "K"-से | ""-यो, इस भाँति । २ "आप पाय" आपने श्रीहरिधाम पाया। ३ "औचक ही" अचानक, धोखे मे।।