पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८०

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AanemantarHeroine भक्तिसुधास्वाद तिलक । तब वही कीनी है। जानि गई “भक्तबधू चाहति परीक्षा लियो” कही "अजू पाए,” सुनि तजी देह भीनी है । भयो मुख स्वेत रानी, राजा पाए जानी यह रची चिता “जरों, मति भई मेरी होनी है"। भई सुधि आपकी, सु आए बेगि दौरि इहाँ, देखि मृत्युपाय नृप, कसो “मेरी दीनी है" ॥ १६३ ॥ (४६८) वार्तिक तिलक । जब श्रीपद्मावतीजी इस मुठाई को जान गई, तब तो रानी के मन में बड़ी भारी लज्जा हुई, परन्तु उस दुर्मति को छोड़ा नहीं, कुछ दिन बीते फिर पूर्ववत् कपट का ठाट रचकर वैसे ही किया। तब श्रीपद्मावतीजी जान गई कि “यह मेरी परीक्षा लिया चाहती है। इससे जब उसके मुख से सुना कि "स्वामीजी श्रीहरिधाम को प्राप्त हुए,” उसी क्षण स्नेह से भीजी हुई निज देह त्याग दी। श्रीपद्मावतीजी की यह अलौकिक स्वच्छन्द मृत्यु देख, रानी का मुख श्वेत हो गया, और राजा श्राके यह चरित्र सुन देख बोले कि "मेरी मति नष्ट हो गई इस खी के संग से, इससे मैं जल जाऊँगा” और चिता रचाकर जला ही चाहता था। यह वार्ता श्रीजयदेवजी सुनते ही दौड़े आए। राजा को देखा कि शोक से मृत्युपाय हो रहा है। आपका दर्शन कर कहने लगा कि “स्वामीजी! मेरी ही दी हुई मृत्यु से माताजी मरी हैं !!!" (२०६) टीका । कवित्त । (६३७) बोल्यो “अजू मोहि जरें बनत अब, सब उपदेश लेकै धरि मैं मिलायो है"। कह्यो बहु भाँति ऐपे प्रावति न शान्ति किहूँ, गाई अष्ट. पदी, सुर दियो, तन ज्यायो है ॥ लाजनि को माखो राजा चाहे अय- घात कियो, जियो नहीं जात, "भक्ति लेसहूँ न आयो है"। करि समाधान, निज ग्राम पाए “किन्दुबिल्लु,"जैसो कछु सुन्यो यह परचे , ले गायो है ।। १६२ ॥ (१६७) वात्तिक तिलक । श्रीजयदेवजी ने राजा को निषेध किया कि “तुम जरो मरो मत,"