पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८१

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३६२. ............. 4 - out + + + + + + +++ + + + श्रीभक्तमाल सटीक तव राजा बोला कि "अजी महाराज ! मुझे अब जले पिना नहीं बनता क्योंकि श्रापका समस्त उपदेश लेके मैंने धूल में मिला दिया।" यह सुन श्रीजयदेवजी ने बहुत प्रकार से समझाया तथापि राजा के हृदय में किसी प्रकार शान्ति नहीं ही आई, तब आपने जाना कि 'विना इनके जिवाए राजा नहीं जीवेगा, इससे आपने संजीवन मंत्र सम गीतगोविंद की अष्टपदी गानकर, शरीर में स्वर भर दिया, सुनते ही श्रीपद्मावतीजी उठके साथ में धाप भी गान करने लगी। यह चरित्र देख के सब "जयजयकार करने लगे। इस प्रकार आपने अपनी भक्ति भाग्यवतीजी को जिला दिया, तथापि लज्जा के मारे राजा को अपना जीना भला न लगता था, ग्लानि से ऐसा विचारता कि “हाय, मेरे मन में भक्ति का लेश भी न आयी, इससे अात्मघात किया चाहता था, तब श्रीजयदेवजी ने बहुत प्रकार उपदेश देकर उसको सावधान किया, और आप अपने किन्दुबिल्व ग्राम को चले आए। श्रीनामास्वामीजी के छप्पय से उपरान्त, श्रीजयदेवजी के ये परि- चय चरित्र-चमत्कार जिस प्रकार वृद्ध लोगों से सुने थे तिस भांति गान किये ।। (२०७ ) टीका । कवित्त । ( ६३६ ) देवधुनी सोते हो अठार कोस आश्रम त, सदाई घस्नान करै धेरै जोग्यताई कौं। भयो तन वृद्ध, तऊँ छोड़े नहीं नित्य नेम, प्रेम देखि भारी निशि कही सुखदाई कौं ॥ "श्रावो जिनि ध्यान करौ, करौ मत हठ ऐसौ” मानी नहीं "पाऊँ मैं ही,” "जानों कैसे आई कौं" ।। "फूले देखौ कंज तब कीजियो प्रतीति मेरी," भई वही भाँति, सेवे अब ली सुहाई कौं ॥ १६३ ॥ (४६६) वात्तिक तिलक। श्रीजयदेवजी राजा के यहाँ से आए। श्रीगंगाजी की धाग १"देवघुनी"-देवसरिता, श्रीगङ्गाजी २ "सोत-स्रोत, धारा । ३ "हो"-थी, रही ।