पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८२

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4 . 40 .. .. . . . R . .. . .. . . . भक्तिसुधास्वाद तिलक । आपके आश्रम से अठारह कोस थी, परन्तु श्राप, श्रीप्रभुकृपा से योग- सिद्धिवेग से गमन कर, नित्य ही, गंगास्नान करते थे। जब आपका शरीर वृद्ध होगया तब भी नित्य स्नान का नेम नहीं बोड़ा। ऐसा भारी प्रेम नेम देख, श्रीगंगाजी को दया लगी, क्योंकि यद्यपि योगावेश से जाते पाते थे तो भी शरीर को परिश्रम होता ही था, इससे श्री- गंगाजी ने निज सुखदाता श्रीजयदेवजी को गत्रिमें आना दी कि “अब वृद्ध शरीर से नित्य स्नान को मत श्रावो, इस हठ को छोड़कर ध्यान ही से मेरा स्नान कर लिया करो।" परन्तु आपने बात मानी नहीं, आते ही थे, तब श्रीगंगाजी ने कृपाकर कहा कि "तुम्हारे आश्रम के निकट की नदी में ही मैं पाऊँगी उसी में स्नान किया करो" आपने पूछा कि "मैं कैसे जानें कि आप आई हो ?" श्रीगंगाजी ने कहा कि "देखो उसमें कमल नहीं हैं, अव जब सुन्दर कमल फूले देखना तब मेरे आ जाने की प्रतीति करना।” दूसरे दिवस देखें तो दिव्य कमल फूले हैं, जल भी दिव्य गंगाजल के तुल्य अमल मिष्ट हो गया, तब श्रीजयदेवजी ने जीवनावधि उसी में स्नान और पान किया। अभी तक किन्दुबिल्ल ग्राम में अति सुहाई “जयदेई-गंगा" नाम से प्रसिद्ध हैं । सज्जन लोग श्रीगंगा तुल्य मानकर सेवन स्नान पान करते हैं । ___ मुंशी तपस्वीरामजी सीतारामीय ने श्रीजयदेवजी की माता का नाम "श्रीराधा देवी" जी लिखा है, और श्रीराधाकृष्णदासजी की भक्त- नामावली (काशी नागरीप्रचारिणी सभा) में "रामादेवी है । इनका समय “सन् १०२५ ईसवी से ३०५० ईसवी तक निर्णय किया है, अर्थात् विक्रमी संवत् १०८२ तथा ११०७ के मध्य है । इनका ग्राम किन्दुविल्ल, बंगाल देश में वीर भूमि से प्रायः दस कोस दक्षिण की ओर अजयनद के उत्तर था। दो० प्रकट भयो जयदेव मुख, अद्भुत गीतगुविन्द । कह्यो ‘महाशृंगार रस, सहित प्रेम मकरन्द ।। (श्रीध्रुवदासजी)