पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

H a .. ....... .. 44 श्रीभक्तमाल सटीक । (३२) श्रीपद्मावतीजी। श्रीमाज्ञा से जब से पिता ने श्रापको श्रीजयदेवजी के पास छोड़ दिया तब श्रीपद्मावतीजी ने अपने को आपकी दासी जानकर पातिव्रत उसी समय से धारण किया, और श्रीजयदेवजी के और और प्रकार से सम- झाने पर भी आपकी ही सेवा में बढ़ रहीं। जब श्रीकविराजराजेश्वरजी स्नान को गए प्रभु ने आप उनके रूप में आकर श्रीपद्मावतीजी को दर्शन दिये, तथा इनके हाथ का भोजन सराह सराह के पाया, और वह पद पोथी में लिखकर चल दिये, धन्य धन्य श्रीपद्मावतीजी। जब दुष्टा रानी (भक्तवधू) ने पुनः पुनः परीक्षा ली आपने शरीर छोड़ ही दिया था। आपकी प्रसंशा कहाँ तक की जा सके । “पद्मावति जयदेव प्रेम बस कीने मोहन"। - (श्रीध्रुवदासजी) (३३) श्री श्रीधरस्वामी। (२०८) छप्पय । (६३५) श्रीधर श्रीभागीत में, परम धरम निरने किया। तीन-कांड एकत्व सानि, कोउ अज्ञ बखानत । कर्मठ ज्ञानी ऐचि अर्थको अनरथ बानत ॥ परमहंस संहिता, बिदित टीका बिसतायो । षटशास्त्रनि अविरुद्ध बेद- संमतहिं बिचाखो ॥"परमानन्द प्रसाद ते, माधौ सुकर सुधार-दियो। श्रीधर श्रीभागीत में, परम-धरम निरनै कियौ ॥४५॥(१६६) वात्तिक तिलक । श्री श्रीधरजीने श्रीभागवत ग्रंथ विषे परम-धर्म (श्रीभगवद्धर्म) "बानत"=वर्णत 'जैसे' कनफहि वान चढ़ जिमि दाहे । अर्थात जैसे दाहेते कनक मे वर्ण चढ़े । पुनः जैसे गाजत अर्थात् गर्जत 1 "ठानत"=पाठ, नवीन कल्पित है।