पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८४

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..444 भक्तिसुधास्वाद तिलक । का यर्थाथ निर्णय किया अर्थात् श्रीव्यासजी और श्रीशुकजी ने जिस ठिकाने जो भागवद्धम जिस महत्व तथा जिस आशय से कथन किया था वहाँ वैसे ही स्पष्ट अर्थ करके दिखा दिया। और अन्य टीका (अर्थ) करनेवालों ने यथार्थ नहीं कहा । कोई लोग कर्मकाण्ड उपासनाकाण्ड, ज्ञानकाण्ड, इन तीनों काण्डों को एक ही में सान (मिला) के अर्थ बखानते हैं, "क्योंकि वे अज्ञानी हैं" गनों का स्वरूप ही नहीं जानते । और पूर्व-मीमांसासक्त कर्मठ अर्थात् कर्मकायही यथा उत्तरमीमांसासक्त वेदान्ती ज्ञानी जन इस भक्तिग्रंथ भागवत को, कर्मज्ञान की दिशि खींचके अर्थ को अनर्थ करके वर्षते हैं । और श्रीश्रीधरानन्दजी ने जैसा "परमहंस- संहिता” यह विख्यात ग्रन्थ है, वैसा ही परमहंसपीतिवर्द्धिनी टीका विस्तार कर वर्णन किया कि जिसमें मीमांसा, वेदान्त, योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, इन छहूँ शास्त्रों के अविरुद्ध वेद के सम्मत विचार- पूर्वक बखान किया । उस "श्रीमद्भागवत भावार्थदीपिका" नामक टीका के प्रारंभ का मङ्गलाचरण यह है “नमःपरमहंसास्वादितचरण- कमलचिन्मकरन्दाय भक्तजनमानसनिवासाय श्रीरामचन्द्राय । सो इस प्रकार की टीका रचना आपको योग्य ही है, क्योंकि आपके ऊपर गुरु स्वामी "श्रीपरमानन्दजी" ने अति प्रसन्न होकर कृपा की। इसी हेतु से उस टीका को श्रीविन्दुमाधवजी ने स्वयं श्रीकरकमलों से सुधार दिया अर्थात् सर्वोपरि सर्व टीकाओं की शिरोमणि बनाकर स्वीकार किया। दो० "श्रीधरस्वामी तौ मनौ, श्रीधर प्रगटे यान । तिलक भागवत को कियो, सब तिलकन परमान ॥ १ ॥" (श्रीध्रुवदासजी) (२०१) टीका । कवित्त । (६३४) पंडित समाज बड़े बड़े भक्तराजजिते, भागवत टीका करि आपस मैं रीमियै । भयो जू विचार काशीपुरी अविनाशी माँझ, समा १"मगल की राशि परमारथ की खानि काशी विरवि बनाई विधि केशव वसाई है।". "प्रलयहु काल राखी शूलपाणि शूलपर" ।। (प्रमाण कवित्त श्रीगोस्वामीकृत)।