पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

A r r . ....... श्रीभक्तमाल सटीक । अनुसार जोई सोई लिखि दीजिये ।। ताको तो प्रमान भगवान "विन्दुमाधौजी" हैं, साधौ यही वात धारि मन्दिर मैं लीजिये । धरे सब जाय, प्रभु सुकर बनाय दियो, कियो सर्व-ऊपर ले, चल्यो मंति धीजिये ॥ १६४ ॥ (४६५) वात्तिक तिलक । जिस समय श्रीश्रीधरस्वामीजी ने “श्रीभागवत' पर टीका रचा उस समय और बड़े बड़े पंडित भक्तों ने भी इस ग्रन्थ की टीकाएँ की, और सबके सब अपनी अपनी टीका अन्य टीकाओं से श्रेष्ठ कहकर निज निज मति पर रीझकर आपस में विवाद करते थे। फिर सबका सम्मत विचार होकर, प्रलयकाल में भी अवि- नाशिनी ऐसी श्रीकाशीपुरी के मध्य इकट्ठे होकर, सब टीकाओं के टीकाकारों ने सभा की कि इस सभा के मतानुसार जो टीका उत्तम मध्यम जैसी हो तैसी लिख दीजे ।'निदान अन्तिम सिद्धान्त यह इथा कि “इसमें महापंच- पंडित भगवान श्रीविन्दुमाधवजी हैं जो टीका आप अङ्गीकार कर सर्वोपरि करें सोई प्रमाण है। अब टीका की श्रेष्ठता जानने के हेतु यही बात सा., प्रथम सब टीका मंदिर में रखकर फिर ले लेवें। ऐसा ही किया, मध्याह्न भोग के पश्चात् प्रभू के आगे सब टीकाएँ धर मंदिर के किवाड़ दे, दो मुहूर्त में खोला, तो देखते क्या हैं कि- _ "स्वामी श्रीधरजीकृत टीका "श्रीविन्दुमाधवजी निज करकमलों से सब टीकायों के ऊपर, धरकर, ब्रह्मा के भाल में भाग्य लिखनेवाले हस्तकंज से उस पर लिख दिया कि " श्रीभागवत पर श्रीधरी टीका सर्वोपरि है।" इस प्रकार आपने अङ्गीकार करके सुधार दिया। इसी से श्रीश्रीधरजी की टीका चली (फैली) और उस पर सब सज्जनों की मति प्रसन्न हुई। १ "भतिवीजिय"=मति प्रसन्न हुई।