पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८६

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...1M .NNARMनर - - - -- - भक्तिसुधास्वाद तिलक । (३४) श्रीपरमानन्दजी। स्वामी श्रीपरमानन्दजी श्री श्रीधरस्वामी के गुरु संन्यासी हैं "परमा- नन्द प्रसाद ते॥" "श्रीपरमानन्दजी " सुकवि, भजनप्रवीन, शान्त, श्रीचन्दावन के संन्यासी सर्वस्व त्यागी थे। (३५) श्रीविल्वमङ्गलजी। (२१०) छप्पय । (६३३) कृष्णकृपा को पर प्रगट, "बिल्वमंगल" मङ्गलस्वरूप। "करुणामृत” सुकवित्त युक्ति अनुचिष्ट उचारी । रसिक जनन जीवन जु हृदय हारावलि धारी॥ हरि पकरायो हाथ बहुरि तह लियो छुटाई। कहा भयो कर छुट्टै बदौं जो हिय ते जाई"॥ चिन्तामणि सँग पाय कै, ब्रजवधू केलि बरनी अनूपाकृष्णकृपा को परंप्रगट, बिल्वमङ्गल" मङ्गलस्वरूप॥४६॥ (१६८) बात्तिक तिलक । श्रीकृष्णजी के बड़े कृपापात्र तथा परम मङ्गल के स्वरूप "श्री. विल्वमंगल" जी ने श्री "श्रीकृष्णकरुणामृत” नामक ग्रन्थ ऐसा विरचा है कि जो श्रीकृपा को परत्व मंगलस्वरूप है, जिसमें न किसी कवि की छाया ही है न किसी काव्य का अनुवाद है, वह रसिकजनों का जीवन है, कि जो उसको हारों की नाई अन्तर और भी कई परमानन्दजी हुए है। जिनमे से है डाक्टर ग्रियर्सन् साहिव (Dr.G.A.Grnerson) ने अण्टछापवाले की, और श्रीराधाकृष्णदासजी ने चार की चरचा की है। १"अनुचिष्ट"-उनिछप्ट नहीं, अमनिया , छाया किसी की नहीं, अनुवाद नहीं। २ "कोपर" पात्र विशेप, परातः । ३ "पर" परत्व, सर्वोपरि ॥