पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३८८

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Aqu a rendra + + + + + + भक्तिसुधास्वाद तिलक । ( २१२ ) टीका । कवित्त । (६३१) करत विचार पारि धार में न रहैं प्राण, तातें भली धारि मित्र सनमुख जाइयें । परे कूदि नीर, कछु सुधि न शरीर की है, वही एक पीर कब दरसन पाइपैयत न पार, तनहारि भयो बूड़िये कों, मृतक निहारि, मानी. नाव मनभाइयें । लंगेई किनारे. नाय, चले पग धाय चाय, आए, पर लागे निशि आधी सो बिहा- इये ॥१६६॥ (४६३) - वात्तिक तिलक । इन्होंने विचार किया कि न प्रियाविरह धार ही में प्राण बच सकते हैं और न जलधार ही में, इससे यही भला है कि प्रेमी के सम्मुख ही प्राण दे हूँ। इतना मन में लाके, नदी में कूद ही तो पड़े, शरीर की कुछ सुधि न रही, केवल मियावियोग का दुःख तथा यह उत्कण्ठा रह गई कि कब अपने प्रेमी का दर्शन पाऊँ । पैरते पैरते थकके ज्योंही तन जलमग्न होने पर हुआ, त्यों ही अकस्मात् एक मृतक (मुरदा) को देखके समझे कि प्रेमी ही ने मेरे अर्थ नाव भेज दी है । उस पर चढ़के देवइच्छा से पार होके तीर लगे । उतरके प्रेमातुर होके दौड़े, जब चिन्ता- मणि के द्वार पर पहुँचे, रात, आधी से अधिक बीती थी, अतः पट लगे थे। ( २१३ ) टीका । कवित्त । ( ६३०) अजगर घूमि भूमि भूमि को परस कियो, लियोई सहारी, चढ्यो छात पर जायकै । ऊपर किवार लगे, पखो कूदि आँगन में, गिखो, यों गरत गग जागी सोर पायके ॥ दीपक बराइ जो पै देख, विल्वमंगल है, "बड़ोई अमंगल, तू कियो कहा आय” । जल अन्हवाय, सूखे पट पहिराय, “हाय | कैसें करि आयो जलपार द्वार धायकै ?" ||१६७॥ (४६२) वात्तिक तिलक । चिन्ता में थे ही कि इतने में एक लटकी हुई वस्तु पर इनकी दृष्टि पड़ी, वह एक अजगर था जो पृथ्वी के पास तक पहुँचके झूल रहा था परन्तु ये प्रति प्रेमान्ध तो थे ही, यह समझे कि प्रेमिन ने मेरे ही लिये