पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३९०

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umanmang +- +-+ M M AntarghoraMediaNn+ भक्तिसुधास्वाद तिलक । (२१५) टीका | कवित्त । (६२८) खुलि गई ऑल अभिलाख रूप माधुरी कौ चाखै रसरंग भी उमंग अंग न्यारिये । वींन लै बजाई गाई विपिन निकुंज क्रीड़ा भयो सुखपुंज जापै कोटि विष वारियै ।। वीति गई राति पात चले श्राप आप को ज हिये वही जाप हग नीर भरि डारियै । “सोमगिरि" नाम अभिगम गुरु कियो पानि सकै को बखानि लाल भुवन निहारिये।। १६६॥(४६०) वात्तिक तिलक । श्रीभगवतकपा से चिन्तामणिजी के वचनों से श्रीविल्यमंगलजी के हृदय की आँखें खुल गई, श्रीयुगलसरकार के रूप के माधुर्य की अभि- लाषा बहुत ही बढ़ी, प्रेमरंग में रंग गए, तन मन में अपूर्व विलक्षण उमंग या गया, चिंतामणि वीणाबजाके श्रीविहारीजी की वृन्दावन कुंज की लीलारूप धाम नाम कीर्तन करने लगी। सुनकर, विल्वमंगलजी ऐसे भानन्द में मग्न हुए कि जिसपर करोड़ों विषय के सुख न्यौछावर करना चाहिये। इसी प्रकार भगवतरूपा के अनुभव में जब सारी रात्रि बीति गई तो भारे दोनों ही ने अपना अपना रस्ता पकड़ा। श्रीरूप हृदय में धरे, और नाम रटते प्रेमाश्रु वहाते चले ॥ भाके, “सोमगिरि" जी को विल्वमंगबजी ने गुरु किया और उनसे उपदेश लिया। इनके प्रेम का वर्णन किससे हो सके ? आप सर्वत्र श्रीनन्दलालजी ही को देखते थे-- "जहँ तहँ देख लली अरु लालहि ॥" (२१६) टीका । कवित्त । (६२७) रहे सो बरस, रससागर मगन भये, नये नये चोज के श्लोक पदि जीजिये । चले वृन्दावन, मन कहे कब देखाँ जाइ, आइ मग माँझ एक १चोज" अनोखाभाव