पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३९१

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H indi ++ + + श्रीभक्तमाल सटीक । ठौर मति भीजियें ।। पखो वड़ो सोर दृग कार के न चाहे काहू, तहाँ सर तिया न्हाति, देखि आँखें रीमियें। लगवाके पाछे काँछ काँछे की न सुधि कछू, गई घर बाछे, रहे द्वार तन छीजिये ॥ १७० ॥ (१५६) वात्तिक तिलक एक वर्ष श्रीगुरु की सेवा में रहके, प्रेमरससिन्धु में मग्न हुए कई रसीले रसीले काव्य पढ़े, तथा गुरुकृपा से बाप भी अनेक भावभरे श्लोक रचना किये, और जीवन का सुख लिया। फिर श्रीवृन्दावन को चले, दर्शन की उत्कण्ठा मन को जैसी विलक्षण है, कही नहीं जा सकती। ऐसी चटपटी हो रही है कि कब देखू ॥ ___ मार्ग में एक सरोवर पर आए ! आपकी श्रीप्रभु-प्रेमोन्माद की दशा में मति मग्न हो गई, अश्रुपातादिक सात्त्विक प्रकट हुए। आपकी यह दशा देखके गाँव में बड़ी धूम 4, आप किसी की ओर दृष्टि भी नहीं करते थे, केवल प्रभु के रूप की माधुरी में छके थे। परन्तु माया के कौतुक से, उसी सर में एक अति रूपवतीस्त्री को स्नान करते देख उस मृगलोचनी के नयनवाण इनकी आँखों में चुभ ही तो गये, और ऐसा खटकने लगे कि वेष की भी लज्जा जाती रही, तन मन की सुधि खो, उसके पीछे-पीछे लगे, और उसके द्वार परं जा जमे । “देखने को प्रति व्याकुल नयना।" विरह से तन क्षीण होने लंगा । वह सुन्दरी अपने घर में चली गई॥ (२१७) टीका । कवित्त । (६२६) आयो वाको पति, द्वार देखे भागवत ठाढ़, बड़ो भागवत, पूछी वध सों, जनाइयें । कही जू “पधारो पाव धारो गृह पावन कों, पावन पखारों जल ढारौं सीस भाइये" ॥ चले भौन माँझ, मन प्रारति मिटायचे कौं, गायवेकौं जोई रीति सोई के बताइयें। नारि सो को "हो तूं सिंगार कार सेवा कीजै लीजै यो सुहाग जामैं बेगि प्रभु पाइये" ॥ १७१ ॥ (१५८) १"कांछ काँछे की"-भागवत वैप धारण किये को। २ "गाइवे लौं"कहने को।