पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३९२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। ३७३ untain+ + + + ज न बातिक तिलक । उसनी का पति कहीं बाहर गया रहा। वह बड़ा हरिभक्त था, घर आके सन्त को द्वार पर खड़े देख, अपने धन्य भाग समझ, दण्डवत कर आसन दिया।बी से पूछा तब उसने सारी वार्ता कह सुनाई। उस भक्त ने आपके पास आके कहा कि "आप भीतर पधारिये, मेस गृह पवित्र होने के हेतु अपने चरण उसमें रखिये । मैं आपके चरण धोके जल सीस पर धारण करके कृतार्थ होऊँ।" यह सुन आप उसके साथ घर में जाके अपने मन की आरति मिटाने के लिये जो कहना था सब बात बता दी। उसने अपनी पतिव्रता स्त्री को आज्ञा दी कि "तुम शृङ्गार करके महात्माजी की सेवा करो, 'इसको परम सुहाग मानकर ऐसी प्रतीति रक्खो कि परम भागवत की निष्कपट सेवा करने से भगवत् शीघ्र रीझते मिलते हैं। (२१८) टीका ! कवित्त । (६२५) चली ये सिंगार करि, थार मैं प्रसाद बैंक, ऊँची चित्रसारी, जहाँ बैठे अनुरागी हैं। झनक मनक जाइ, जोरि कर ठादी रही, गही मति देखि देखि नून वृत्ति भागी है ।। कही युग सूई ल्यायो ल्याई, दई, लई हाथ, फोरि डारी आँखें, "अहो बड़ी ये अभागी हैं।गई पतिपास स्वास भरत न बोलि आवै, बोली दुख पाय बाय पाँय परे रागी हैं॥ १७२॥(१५७) वात्तिक तिलक । __पति की आज्ञा ही को परम धर्म मान, वह सौभाग्यवती सज धज, वन ठन, श्रीभगवत्प्रसाद का थार हाथ में ले, उस ठिकाने चली जहाँ चित्रसारी युक्त ऊँची अटारी पर बिल्वमंगलजी उसकी चाह में विराजते थे, गहना के शब्द तथा प्रमदाओं के स्वाभाविक हावभावयुक्त सुन्दरी आपके आगे पहुँचकर कर जोड़ के खड़ी हो गई अर्थात् बिल्वमंगलजी की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगी। विल्वमंगलजी की मति जो कामवश वही जाती थी, उसको