पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३९३

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++An-N angarerat-and+++ +++Dram m ar+ ३७४ श्रीभक्तमाल सटीक । विवेक से ये पकड़कर वारंवार उसका रूप देखने लगे, मुख्याभुषा और निष्कपट भक्त तथा पतिव्रता वी के दर्शन से, इनकी न्यून विषय- वृत्ति भागी, निर्मल मति प्राप्त हुई, विचार किया कि इन अनों की जड़ यही निगोड़ी आँखे हैं। उस सुलोचना सुलक्षणा से कहा कि "दो सुई ला दो" वह ले आई. इन्होंने शीघ्र ही उन दोनों सुइयों से अपने दोनों नेत्र फोड़ डाले । वह भक्तिवती शोक से श्वास लेती काँपती डरती अपने पति के पास गई, अतिशय दुःख के साथ टूटे फूटे स्वर से सब वृत्तान्त निवेदन किया, सुनते ही वह अनुरागी बड़भागी भी घबराया हुधा दौड़कर श्रापके चरणों पर आ गिरा। (२१९) टीका । कवित्त । (६२४) "कियो अपराध हम, साधु को दुखायों "अहो बड़े तुम साधु हम नाम साधु धरयो है"। "रही अजु सेवा करौं” “करी तुम सेवा ऐसी जैसी नहीं काहू माँझ, मेरो मन भरयो है" ॥ चले सुख पाई, हग भूत से छुटाइ दिये, हिये ही की आँखिन सों अबै काम परचो है । वैठे वन मध्य जाइ, भूखे जानि आप आइ भोजन कराइ "चलौ छाया दिन दलो है" ॥१७३॥ (४५६) . वार्तिक तिलक । • व्याकुलता से बोला कि “हम दोनों से बड़ा अपराध हुआ, हमसे सन्त ने दुःख पाया, हम बड़े अभागी हैं।" पाश्वासन-पूर्वक आपने उत्तर दिया "अहो, तुम वस्तुतः बड़े साधु हो, मैं तो साधुवेष को महा- कलंक लगानेवाला वास्तव में बड़ा असाधु हूँ, साधु का तो केवल नाम मात्र मुझे है वास्तव में साधु तो तुम हो।" तब भक्त ने विनय किया कि “महाराज! आप रहिये, मैं आपकी सेवा श्रोषधि करूँ।" आपने उत्तर दिया कि "तुमने तो ऐसी सेवा करके मेरा मन हर लिया कि किसी से ऐसी कहाँ हो सकेगी, तुम हरिकृपा से बने रहो, भगवद्भजन तथा सन्तसेवा किया करो।" श्रीविल्वमंगलजी नेत्ररूपी प्रेतों को अपने शरीर से छुड़ाके, सुखपूर्वक श्रीवृन्दावन को चल खड़े हुए ॥ .