पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३९४

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H- Reema+rammernmentertainme-mummer भक्तिसुधास्वाद तिलक । अब बाहर की आँखों से तो स्थूल भौतिक वस्तुओं के देखने का काम रह गया ही नहीं, हृदय के नयन से सुखपूर्वक प्रयोजन साधते चलके एक वन के मध्य जा बैठे । श्रीविल्वमंगलजी को भूखे देख, श्रीवृन्दावन- विहारीजी ने स्वयं आकर प्रसाद पवायके कहा कि "दिन ढर चला संध्या समीप है, छाया में चलो ॥ (२२०) टीका । कवित्त । (६२३) चले लै गहाइकर, छाया घन तरु तर,चाहत छुटायो हाथ, छोड़ें कैसे? नीको है।ज्यों ज्यों बल करै त्यों त्यों तजत न एक अर, लियोई छुटाइ, गह्यो गाढ़ो, रूप ही को है। ऐसे ही करत बृन्दावन धनाइ खियो पियो चाह रस, सब जग लाग्यो फीको है। मई उतकंठा भारी, आये श्रीविहारी- लाल, मुरली बजाइकै सुकियो भयो जीको है ।।१७४॥ (४५५) वात्तिक तिलक । श्रीप्रभु करुणाकर भक्तवत्सलजी हाथ पकड़ाके आपको एक घने वृक्ष की सुखद छाया के तले बैठाके, अपना करसरोज आपके हाथ में से छुड़ाने लगे, आप भला कैसे छोड़ना चाहते, क्योंकि वह करकमल प्रति प्रिय ब्रह्मस्पर्श सुखद था, परन्तु वल करके छुड़ाके प्रभु अलग होगए। आप बोले "हाथों में से निकले जाते हो, पर यदि मन में से सरकोगे तो देसूंगा।" इसी प्रकार प्रभु के सहारे से वृन्दावन में प्राकर श्रीवृन्दावन के कुंज में जमके रहे, संसार फीका लगने लगा, सब ओर से चित्त की वृत्ति इकट्ठी करके, श्रीकृपा से भगवत् का प्रेमरस पीना चाहा ॥ चौपाई। "सव के ममता ताग बटोरी। ममपद मनहिं बाँध वट डोरी ॥" युगल सरकार के दर्शन की उत्कण्ठा प्रवल हुई। चौपाई। "रामचरणपंकज जब देखौं । तब यह जन्म सफल कार लेखौं ॥"