पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३९५

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+ + - 4 . - .- - . श्रीभक्तमाल सटीक । श्रीविहारीजी कृपा करके श्राए । वंशी की मीठी तान सुनाई, इनके हृदय का भावता मनोरथ पूर्ण किया। . ( २२१ ) टीका । कवित्त । ( ६२२ ) . खुलि गए नैन ज्यों कमल रवि उदै भए, देखि रूपराशि बाढ़ी कोटि गुनी प्यास है। मुरली मधुर सुर राख्यो मद भरि मानो दरि आयो कानन मैं पानन मैंभास है। मानिकै प्रतापचिंतामनि मनमाँझ भई, "चिंतामनि जैति" आदि बोले रसरास है। "करुनामृत” ग्रंथ, हृदै ग्रंथि की विदारि डारे, बाँध रस ग्रंथ पन्थ युगल प्रकास है ॥३७५॥ (४५४) वात्तिक तिलक । श्रीविहारीजी ने आके मुरली बजाई, उसकी तान सुन, आपने जाना कि यह तो विहारीलाल के मुख की ही वंशी है, इससे स्वरूपमाधुरी देखने की अभिलाषा हुई ॥ ___ तब जैसे सूर्योदय से कमल.खिल जाते हैं, वैसे ही आपके नयन खुल गए । सामने करुणासागर शोभाराशि भगवान के दर्शन प्राप्त हर्ष से फूले, आनन्द हृदय में अँटता नहीं था, दर्शन से भला कव तृति होती है ? छविसमुद्र का मुखचन्द्र देखते रहने की प्यास कोटिगुण अधिक बढ़ती चली॥ _श्रीवंशी का वह मधुर स्वर सुनकर आनन्दमग्न हो गए, उस श्रवणा- मृत ने इनके कानों में पहुँचकर इनको मतवाला कर दिया, मुरली ध्वनि की गूंज सदाबनी ही रही,और मुखारविन्द के प्रकाश का कहना ही क्या है। आपने चिन्तामणि के उपदेश का प्रताप जान, मनमें गुरुतुल्य मान, "जयतिचिन्तामणि', आदि शब्द, उच्चारण किये, रसराशि शृंगार ग्रन्थ में जिसका नाम "श्रीकृष्णकरुणामृत" है और जो जीवमात्र की हृदय- ग्रन्धि के खोलने के लिये अतिभपूर्व है, ऐसी चमत्कृति दिखाई है कि वह ग्रन्थ श्रीयुगलसरकार (प्रियाप्रियतम) के रूप-माधुरी प्रेमरस में गाँठ बाँध देता है, तथा प्रभु की प्राप्ति के सुन्दर मार्ग का प्रकाशक ही है ।