पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३९७

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३७८ श्रीभक्तमाल सटीक । (३६) श्रीविष्णुपुरीजी। (२२३) छप्पय । (६२०) कलि जीव जंजाली कारनै, "विष्णुपुरी” बडिनिधि सँची॥ भगवत धर्म उतुंग आन धर्म आनंन न देखा। पीतर पटतर विगत, निषक ज्यौं कुंदन रेखा ॥ कृष्णकृपा कहि बेलि फलित सतसंग दिखायो। कोटि ग्रंथ को अर्थ, तेरह विरचन में गायो॥महा समुद्र भागौततें "भक्तिरतन- राजी" रची। कलि जीव जंजाली कारनै, "विष्णुपुरी" बड़ि निधि सँची॥४७॥ (१६७) वात्तिक तिलक । श्रीविष्णुपुरीजी ने, कलियुग के जंजाल झंझट में उलझे हुए भगवद्भक्ति सम्पत्तिहीन दरिद्री, जीवों के उपकारार्थ बहुत बड़ा धन (महानिधि) संचय किया ॥ श्रीभगवद्धर्म (नवधा, प्रेमा, परा भक्तियों) को सब धर्मों से ऊंचा जानके वैसा ही वर्णन किया, और अन्य धर्मों (वर्थ तथा पाश्रम के धर्मों) का मुख भी (आनन) शपथ करके नहीं देखा, किस प्रकार कि जैसे सोनार की कसौटी में पीतल घिसने से उसका रंग रेखा विगत हो जाता है अर्थात् कसौटी किंचित् भी ग्रहण नहीं करती, और कुन्दन सुवर्ण के रंगरेखा अतिचमकयुक्त उपट आते हैं, इसी प्रकार आपकी मति तथा भणित में भगवद्धर्म चमत्कारयुक्त चमकता है। -- - १"आन धर्म आनन न देखा"=अन्य धर्मों का मुंह भी नहीं देखा । "आन धर्म मानन देखा"-आन (शपथ) करके आन [अन्य'] धर्मों को नहीं देखा । बा, अन्य धर्मों को अपनी मति में आन के [ला के] देखा भी नही।२ "आनन न देखा" मुंह न देखा। ३ "पीतर-पीतल । ४"पटतर"-सरिस. उपमा । ५ "निषक" कसौटी (सुनार की) । ६ "बिरवन"-लर, माला की लड़ियाँ । ७ "राजी"-पक्ति, माला ॥