पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४००

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+samitra . . HIMIRREnging .. . ranelamm Hirtugust भक्तिसुधास्वाद तिलक । (२२६) टीका । कवित्त । (६१७) । विष्णुस्वामि सम्प्रदाई वड़ोई गंभीर मति, "ज्ञानदेव" नाम, ताकी बात सुनि लीजिये । पिता गृहत्यागि, आइ ग्रहण संन्यास कियो, दियों बोलि झूठ “तिया नहीं,” गुरु कीजियें ॥ आई सुनि बधू पाछे, कह्यो जान्यो मिथ्यावाद, "भुजनि पकरि मेरे संग करि दीजिये। ल्याई सो लिवाइ, जाति अति ही रिसाइ, दियो पंक्ति मैंते डारि, रहें दूरि, नहीं छीजियें ॥ १७८ । (४५१) (३७) श्रीज्ञानदेवजी। वात्तिक तिलक । विष्णुस्वामीसम्प्रदाय में बड़े गम्भीरमति श्रीज्ञानदेवजी, उनकी कथा सुनिये । आपके पिता ने अपना घर छोड़ आके संन्यास ले लिया। पूछने पर गुरुजी से झूठ कहा था कि “मेरे पत्नी नहीं हैं, मुझे शिष्य कर लीजिये" (क्योंकि स्त्री रहते संन्यासी वैरागी बनानेवाले को बड़ा दोष होता है)। परन्तु पीछे उनकी श्री पहुँची और विगड़ के कहने लगी कि "है महाराज | बल से हाथ पकड़ के इनको मेरे साथ कर ही दीजिये," और आपको अपने साथ घर ले ही आई । जाति के ब्राह्मणों ने अत्यन्त क्रोध करके इन दोनों को अपनी पंगति से निकाल दिया कि "अब मिलने योग्य नहीं हैं," इससे जाति पांति से पृथक रहते थे। - (२२७) टीका | कवित्त । (६१६) भए पुत्र तीन, तामें मुख्य बड़ो ज्ञानदेव जाकी कृष्णदेवज सों हिये की सचाई है । वेद न पदाचे कोऊ कह सब “जाति गई, लई करि सभा अहो कहा मन आई है । "बिनस्यो ब्रह्मत्व" कही "श्रुति अधिकार नाहि,” वोल्यो यों निहारि“पढ़े भैंसा" लै दिखाई है ॥ देखि भक्तिभाव, चाव भयो, पानि गहैं पांव, कियोई सुभाव वही गही दीनताई है ।। १७६ ॥ (४५०) बात्तिक तिलक । उनके तीन पुत्र हुए जिनमें सबसे बड़े "श्रीज्ञानदेवजी" है जिन-