पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४०२

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PHARMAnameHARAHMIRI TraireniupAnterpitAIMIMAns- भक्तिसुधास्वाद तिलक । "कुल अच्युत” को ऐपै नहिं बने, एक तिया रहे पास है । दहलू न कोई "साधु मन ही की जानि लेत" येही अभिलाष सदा दासनि को दास है ।।१८०॥(४४९) बात्तिक तिलक । श्रीज्ञानदेवजी के दो शिष्य हुए (३) श्रीनामदेवजी और (२.) श्रीत्रिलोचनजी । सूर्य और चन्द्र के समान दोनों ने संसार में प्रकाश किया। जिनमें से "श्रीनामदेवजी की वार्चा तो ऊपर कही ही जा चुकी है, दूसरे ( श्रीत्रिलोचनजी) की भक्ति की कथा ऐसी अपूर्व रस की भरी है कि सुनते ही बनता है, सो सुनिये-- आप वैश्य वर्ण में उत्पन्न थे, और "अच्युतकुल" अर्थात् वैष्णवों की सेवा किया करते ।दोही पाणी थे, आप और इनकी धर्मपत्नी, घर में तीसरा कोई न था। आपको साधुसेवा में ऐसा प्रेम था कि सदा यही बड़ी लालसा रहती थी कि "हरिकृपा से कोई ऐसा नौकर हाथ लगता कि जो सन्तों के मन की बझ बूझ उनकी रुचि के अनुसार टहल किया करता," ये हरिदासों के दास, इसी सोच विचार में रहा करते थे। ( २२९ ) टोका । कवित्त । ( ६१४). आए प्रभु, टहलुवा रूप धरि द्वार पर, फटी एक कामरी पन्हैयाँ टूटी पाँय हैं । निकसत पूछे "अहो कहाँ ते पधारे आप ? बाप महतारी और रखिये न" गाय हैं ॥ “बाप महतारी मेरे कोऊ नाहि साँची कहाँ, गहौं मैं टहल जो पै मिलत सुभाय हैं। अनमिल वात कौन ? दीजिये जनाय वहू, "पाऊँ पाँच सात सेर, उठत रिसाय हैं" ॥१८१॥(४४८) वात्तिक तिलक। भक्त की अनोखी अभिलाषा जान, एक दिन स्वयं प्रभु ही एक टहलू के रूप से, कंधे पर फटी कमली घरे पाँवों में टूटी पनही पहिने भाप के द्वार पर था ही तो पहुँचे॥ १ 'कुल अच्युत” वैष्णव ॥ २"गाय है" कथन किया ।।