पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४०९

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३९० .................... श्रीभक्तमाल सटीक। 44.4.14npum.. ..ttaraipu+01-. M H - 001 ___एक समय एक सरल चित्तवाले सीधे सन्त गोकुल तथा श्रापके देखने को गए, वहाँ की लोकोत्तर मोद्दीपक रीति देखके बड़े प्रसन्न हुए, यहाँ तक कि गोकुल अर्थात् मन सहित सव इन्द्रियाँ प्रेमानन्द में डूब गई। श्रीशालग्राम ठाकुरजी का बटुआ क्षेमंकर के वृक्ष की डाल पर लटकाकर श्रीवल्लभाचार्यजी के दर्शन को गए । दर्शन करके और भी भारी सुख पाया । जब फिर प्राके देखा तो उस डाल में ठाकुर का बटुश्रा न पाया, तो आपके पास आके कह सुनाया। आपने सन्त को चिन्ता से मलीन देखके कहा कि "फिर जाके वहीं देखिये।" अब अाके देखें तो ठीक ठीक वैसे ही बहुत से ठाकुरबद्धए झूल रहे हैं। साधुजी बेसुध होकर पुनः आपके पास आये, तब आपने कहा कि "अपने ठाकुरजी को पहिचान लो नित्य सेवा पूजा करते हैं और अपने ठाकुरजी को पहिचानने तक नहीं।" (२३७) टीका । कवित्त । (६०६) खुलिगई आँखें अभिलासै पहिचानि कीजै दीजैजू बताइ मोहि, पाऊँ निज रूप है। कही जावो वाही ठौर देखो प्रेम लेखी हिये, लिये भाव सेवा करौ मारग अनूप है। देखि के मगन भयो लयो उर धारि हरि नैन भरि आये जान्यो भक्ति को स्वरूप है । निसि दिन लग्यो पग्यौ जग्यो भाग पूरन हो पूरन चमतकार कृपा अनु- रूप है ।। १८६॥(४४०), वात्तिक तिलक। साधुजी को झलक गई कि यह परचो थापही का है, और चाहा कि पहिचानें, परन्तु पहिचान में न आए, तब आपसे विनय किया कि “कृपा करके बता दीजिये जिसमें मैं अपने प्रभु की मूर्ति को पाऊँ ।” प्रार्थना सुन आपने समझाया कि "प्रेमभाव सहित सेवा किया करो, ठाकुर कहीं, और तुम कहीं, यह सप्रेम सेवा-भक्ति का मार्ग अति अनूप है ।" यह कह, आज्ञा की कि "उसी ठाँव जाओ। अाके, अपने ठाकुरजी पाके, बड़े सुखी हुए, प्रेमजल आँखों में भर