पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४१०

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३९१ +M MA+4 भक्तिसुधास्वाद तिलक । आया, और भक्ति का स्वरूप जान गए, अपने को धन्य माना। और प्रभु के सेवा अनुराग में तत्पर हो पग गए, पूर्व के उनके पूर्ण भाग्य "जगे, क्योंकि श्रीवल्लभाचार्यजी की कृपा से प्रभु की भक्ति का पूर्ण वमत्कार देख लिया। श्रीभक्तदासेभ्यो नमः । श्रीकलियुग के भक्तों की जय ॥ . (२३८) छप्पय । (६०५) संत साखि जानैं सबै, प्रगट प्रेम कलियुग प्रधान ।। मक्तदास इक भूप श्रवन सीताहरकीनौं । "मार मार" करिखड़ग बाजि सागर मैं दीनौं। नरसिंह को अनुकरन होइ हिरनाकुस मायौ, वहै भयौ दशरथ, राम बिछुरत तन छायौ ॥ कृष्ण दास बाँधे सुने, तिहि छन दीयो प्रान । संत साखि जानै सबै, प्रगट प्रेम कलियुग प्रधान ॥ ४६॥ (१६५) वात्तिक तिलक। इस बात को सब सज्जन जानते हैं, और सन्तजन इसके साक्षी हैं के कलियुग में प्रगट प्रेम अर्थात् अनेक भक्तों का प्रेमभाव प्रत्यक्ष देखने में आया, उसमें ये तीन प्रेमावेशी भक्त परम प्रधान हुए । उनमें से (१) दक्षिण देश में श्रीसीतारामजी के दास्यरसावेशी भक्त-राजा "श्रीकुल- शेखरजी” हुए। इन्होंने श्रीरामायणजी में श्रीसीताहरण-कथा श्रवण करते ही महा प्रेमावेश में पगके, सेना सहित खड्ग खींच के "मारो मारो शुद्ध रावण को" इस प्रकार वीरालाप करते घोड़े पर चढ़, दौड़ा के, घोड़े को सागर में डाल दिया। तब प्रेमगाहक प्रभु ने दरशन देके इन्हें लौटाया ॥ "ढाई अक्षर 'प्रेम' का पढ़ा जो, पंडित सोह ॥" "भक्तदास" =श्रीराम-भक्तो का दास ! "भक्तदास" रूढि सज्ञा अर्थात् दूसरा नाम ही है । दास्यरसावेशी भक्त ।